Monday, September 29, 2014

गांधी की जर्क तकनीकी

गांधी की जर्क तकनीकी
     
इतिहास में हमेशा उन लम्हों को ही याद रखा जाता है जिन लम्हों ने इतिहास में उथल पुथल की हो,ऐसे ही,जिन्दगी में वे लोग ही याद रह जाते हैं जिन्होंने अपने जीवन से समाज को दिशा दी हो या जिन्होंने समरसता को  तोड़ा हो,इतिहास में भी सब कुछ दर्ज नही किया जाता,केवल वही दर्ज किया जाता है जो अपने समय में जर्क पैदा करता हो,गांधी जी हमेशा ही सार्वजनिक जीवन में अपने विचारों से और व्यावहारिक जीवन में अपने विचारों के क्रियाकलापों से हमेशा जर्क देते रहे हैं,दरअसल जर्क तकनीकी आज के समय में अध्यापन में विद्यार्थियों पर प्रयोग की जाने वाली वह तकनीकी है जिसके द्वारा अध्यापन के समय कुछ तकनीकी माध्यम से, भाषाई माध्यम से या अन्य किसी व्यवहारिक माध्यम से विद्यार्थी का ध्यान अध्ययन की ओर आकर्षित करने के काम में लाई जाती है,यह तकनीकी इस बेस पर कार्य करती है कि समाज में मौजूद भाषा या कार्यकलापों का इस्तेमाल इस तरह किया जाए जो कि प्रचलन में न हो कुछ नए तरीके से हो,मतलब कि पुराने पत्थरों से नयी इमारत का निर्माण,ऐसा अक्सर सामान्य व्यावहारिक कार्य कलापों में भी उपयोग में लाया जाता रहा है,गांधी जी का सारा जीवन देखें तो उनके व्यवहार से लेकर विचारों तक में यह तकनीक खोजी जा सकती है |
            दरअसल गांधी के बचपन से लेकर भारत के स्वतंत्रता संग्राम तक के समय को देखें तो यह बात बहुत स्पष्ट हो जाती है कि गांधी जी ने हमेशा ही इस तकनीकी का प्रयोग किया है,विचारों के स्तर पर देखें तो जब गांधी भारत आये तब भारत का अभिजात्य वर्ग एक घोर निराशा में डूबा हुआ था और जिस बात से वह निराश था वह थी अंग्रेजी और अंग्रेजी सभ्यता, इसके बारे में उन सभी का मानना था कि बिना अंग्रेजी जाने या बिना अंग्रेजी सभ्यता को अपनाए भारत का उद्धार नही हो सकता है इसलिए कुछ लोग अंग्रेजी की महत्ता पर जोर दे रहे थे तो कुछ आधुनिक रहन सहन पर और कुछ उपभोग की जरूरतों पर,एक तरह से पश्चिमी सभ्यता का प्रभुत्व सबने स्वीकार कर लिया था,किन्तु गांधी जी ने यहाँ अपने स्वर्णिम इतिहास की याद दिलाकर और पश्चिमी सभ्यता की पोल खोलकर उन्हें  इस नैराश्य से दूर किया और तब उन्होंने भारतीय सभ्यता के मर्म को समझा,उन्होंने पश्चिमी सभ्यता के वाहक रेल,भारी मशीनरी,डाक्टर्स,वकीलों का विरोध इसलिए नहीं किया कि वे इनके व्यवसायों से नफरत करते थे बल्कि इसलिए कि इस सबके माध्यम से उनके घातक परिणामों से उन्हें अवगत कराया जा सके,पूरी हिन्द स्वराज ही इस विचार पर उन्होंने लिखी, इसका एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण यह भी था कि इनके माध्यम से उस समय प्रचलन में आने वाली चीजों के प्रति एक मोहभंग की स्थिति निर्मित हो,दरअसल इस तकनीकी का इस्तेमाल बर्तोल्त ब्रेख्त के नाटकों में भी किया जाता रहा है,जिनमें नाटक के किसी पात्र के माध्यम से या तकनीकी माध्यम से अचानक किन्हीं भावनाओं में बह रहे श्रोताओं के मनोभावों को एक झटके में बदल दिया जाए,ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि मनुष्य का अपने यथार्थ से सम्बन्ध बना रहे और वह वास्तविक यथार्थ से अलगाव महसूस न करे बल्कि हमेशा ही उससे जुड़ा रहे,और नाटक को अपनी तार्किक दृष्टि से ही देखे| गांधी जी का जोर भी इस बात पर हमेशा रहा कि भारतीय सभ्यता में वे सब गुण मौजूद हैं जो इसे एक महान सभ्यता बनाते हैं बस जरुरत इसे तार्किक दृष्टि से समझने की है, यह तार्किकता बनी रहे इसलिए वे इस तरह के प्रयोग करते रहते थे,वे भारतीय सभ्यता में मौजूद अश्पृश्यता,ऊंच नीच आदि का विरोध भी इसी आधार पर करते थे और कहते थे कि  वेदों में भी लिखीं बातें सिर्फ इसलिए नहीं मान लीं जानी चाहिए कि वे सदियों से प्रचलन में हैं बल्कि उन्हें तर्क की कसौटी पर कसने के बाद ही स्वीकार किया जाना चाहिए |    

व्यावहारिक स्तर पर उनके जीवन के ऐसे अनेक वाकये हैं जिनमें इस तकनीकी प्रयोग बहुत ही स्पष्ट देखा जा सकता है जैसे एक बार जब असहयोग आन्दोलन की  पृष्ठभूमि  तैयार की जा रही थी तब देश के बड़े बड़े नेता जिनमें नेहरु जी,सरदार पटेल आदि गंभीर चिंतन कर रहे थे अचानक गांधी जी उठकर जाते हैं और अपनी जख्मी बकरी के पैरों में मिट्टी लगाने लगते हैं,भारत छोड़ो आन्दोलन के समय जब पूर्ण आजादी की मांग पर बैठक हो रही थी जहाँ मौलाना आज़ाद,कृपलानी,नेहरु,जिन्ना आदि मौजूद थे तब अचानक गांधी जी उठकर वेटर के हाथ से तस्तरी में रखी चाय सर्व करने लगते हैं,रिचर्ड एटनबरो ने इसे बखूबी फिल्माया है,ऐसे कई उदाहरण उनके जीवन से लिए जा सकते हैं जिनमें उन्होंने बखूबी इसका इस्तेमाल किया है,उनके अहिंसक दर्शन में इसके बीज देखे जा सकते हैं, दो दो विश्व युद्ध देखने वाली इस घोर हिंसक सदी में अचानक अहिंसा का दर्शन जर्क तकनीकी ही तो है| उनकी इस तकनीक पर पूरा का पूरा एक शोध किया जाना लाजिमी बनता है|  

Tuesday, April 29, 2014

प्रो.हाब्सवाम के साथ भारतीय इतिहासकारों की परिचर्चा

प्रो.हाब्सवाम के साथ भारतीय इतिहासकारों की परिचर्चा
                                                अनुवाद: अमित राय 

(यह परिचर्चा बुक रिव्यू लिटरेरी ट्रस्ट के सहयोग से इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में 14 दिसंबर 2004 को आयोजित की गयी थी,इस परिचर्चा में भारत के प्रसिद्द इतिहासकार पी.सी.सेन,रोमिला थापर,शाहिद अमीन,नीलाद्री भट्टाचार्या,हरि वासुदेवन शामिल हुए| यह परिचर्चा हमारे समय और समाज के ताने बाने को तार्किक ढंग से समझने के रास्ते को आसान बनाती है| यह इंडिया इंटरनेशनल सेंटर त्रैमासिक,संस्करण 31,संख्या 4,(वसंत 2005) पेज 101-125 में प्रकाशित हुई थी)

पी.सी.सेन : प्रो.हाब्सवाम,डॉ.रोमिला थापर,प्रतिष्ठित इतिहासकार और मित्रो,प्रो.हाब्सवाम को निश्चित तौर पर विश्व में कहीं भी बुद्धिजीवियों के समूहों में किसी भी परिचय की जरुरत नही है और उनके बीच भी जो इतिहास में बतौर केंद्र के निदेशक के तौर पर रूचि रखते हैं | मैं कहना चाहता हूँ कि हमारे बीच प्रो.हाब्सवाम का होना बड़े सौभाग्य की बात है| यह इस केंद्र के लिए यादगार पलों में से एक है | हमारे बीच आने के लिए धन्यवाद |

रोमिला थापर : यह किसी के लिए भी दुर्लभ अवसर है कि प्रो.हाब्सवाम जैसे बड़े विद्वान ने यहाँ हमारे बीच बातचीत के लिए आने की स्वीकृति दी | हम सबसे पहले बुक रिव्यू लिटरेरी ट्रस्ट और आई आई सी  को इस अवसर को उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद देना चाहते हैं,और इससे भी ज्यादा हम प्रो.हाब्सवाम को बातचीत में भागीदारी करने और व्याख्यान देने आने के लिए उन्होंने जो कष्ट उठाया उसके लिए उन्हें धन्यवाद देते हैं |

      इस सुबह की बातचीत का केंद्र कुछ निश्चित विचारों के इर्द गिर्द रहेगा,ऐसा बहुत ही सख्ती से नही बल्कि बहुत ही तार्किक तरीके से, चैनल्स द्वारा तय विषय के आसपास ही रहेगा, इन विचारों में से पहला जो विचार है, वह है इतिहासकार का शिल्प,जिसे विभिन्न दृष्टान्तों के माध्यम से उन्होंने (प्रो.हाब्सवाम) अपने चारों संस्करणों में विकसित किया है,यह ठीक वैसा ही व्यक्त हुआ जैसा कि आधुनिक समय था; वही समय जिसने आधुनिकता का निर्माण किया, और इसी को उन्होंने अपने चारों संस्करणों में स्पष्ट तौर पर व्यक्त किया है| अन्य विचार निस्संदेह इतिहास में मार्क्सवाद के प्रश्न के सन्दर्भ में उनके महान योगदान पर होगा,हममें से कईयों के लिए,निश्चित तौर पर मेरे लिए,उनको इस विषय पर पढ़ना प्रतिमानों में परिवर्तन (पैराडाइम शिफ्ट) था|

और तब वे आधुनिक विश्व के उदय के बारे में बातचीत करेंगे जो स्पष्ट तौर पर समकालीन घटनाओं को जोड़ता है| वे अपने पूरे जीवन भर और हाल ही में ज्यादा समकालीन घटनाओं के भाष्यकार रहे और ऐसे भाष्यकार जिन्हें बहुत ही गंभीरता से लिया जाता रहा है और लिया भी जाना चाहिए| मेरे लिए उनकी एक चीज ज्यादा प्रभावित करती है और उनके कार्य में ज्यादा अभिव्यक्त होती है वह है कि यदि आपके पास विश्लेषण की जांची परखी हुई,विश्वसनीय विधि है तो आप उसे आभासी रूप से सम्पूर्ण मानवीय गतिविधियों पर लागू कर सकते हैं| उन्होंने जब सामाजिक दस्युता जैसे एक तरफा प्रश्नों को देखा तब उन्होंने इसे अपने चारों संस्करणों से परे लागू किया|
और इसके अलावा एक महत्वपूर्ण विचार,एक विषय जो कई लोग नही जानते वह है उनका जैज़ संगीत पर अद्भुत अध्ययन और उन्नीसवी सदी की अभिव्यक्ति के रूप में जैज़ संगीत| तो ये करीब करीब चीजें हैं जिन पर हम बातचीत करेंगे|

शाहिद अमीन : बहुत बहुत धन्यवाद प्रो.थापर|  मैं सीधे तौर पर अपने विषय पर आउंगा| हममें से अधिकतर मध्यकाल के इतिहासकार जो यहाँ है उन्होंने पेंगुइन बुक्स और क्रिस्टोफर हिल/एरिक हाब्सवाम/एडवर्ड थोम्पसन से बहुत कुछ लिया है| मुझे आज जो प्रस्तावित करना है वह है प्रो.हाब्सवाम के निबंधों का संग्रह ‘ऑन हिस्ट्री’ (1997) में इतिहासकार के शिल्प से सम्बंधित कुछ मसलों का चयन कर बातचीत की शुरुआत करना| इस पर आने से पूर्व मैंने  इसी शीर्षक ‘ऑन हिस्ट्री’ नाम से आयी फर्नांड ब्राउडेल्स[1] की एक अन्य किताब को लिया है,इस मसले पर बात करते हुए कि इतिहासकार कैसे अपने लेखन को समय के साथ जोड़ते हैं ब्राउडेल्स एक दिलचस्प चेतावनी रखते हैं: वह इस किताब की भूमिका में लिखते हैं कि “सभी की तरह,मैं नही मान सकता हूँ कि यह आवाज़ मेरी है जबकि मैंने सुना हो कि उसे रिकार्ड किया गया है,न ही मैं इस पर निश्चित हूँ कि मैं यह मानूं ही कि कल के मेरे विचारों का वास्तविक अर्थ पुनः पढ़ते हुए वही है जो कि कल था|”

      प्रो.हाब्सवाम के निबंधों का संग्रह ‘ऑन हिस्ट्री’ के कुछ महत्वपूर्ण क्लासिक निबंधों जैसे “सामाजिक इतिहास से समाज के इतिहास तक”(फ्राम सोशल हिस्ट्री टू द हिस्ट्री ऑफ़ सोसायटी डाईडेलस,विंटर,1972) में या “इतिहासकारों पर कार्ल मार्क्स का कर्ज” (“व्हाट टू हिस्टोरियन ओव टू कार्ल मार्क्स”,1969) में कुछ इसी तरह के प्रकटीकरण हैं| परन्तु अस्मिता इतिहास और जातीयता के बढ़ते महत्त्व के परिप्रेक्ष्य में इतिहासकारों के उत्तरदायित्वों के लिए दावों के अर्थ में वहां कुछ दखलंदाजी भी है,और यही वह बिंदु है जिससे मैं आज चर्चा आरम्भ करना चाहता हूँ|

      हाब्सवाम के अनुसार,इतिहासकार का उत्तरदायित्व साक्ष्यों के प्रभुत्व पर जोर देना और जांच योग्य एतिहासिक तथ्यों और कल्पना के बीच भेद की केन्द्रीयता पर बल देना होता है| यह जिम्मेदारी आज और भी ज्यादा बढ़ जाती है,यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इतिहासकार को एक मुखबिर (व्हिसिल ब्लोअर) की तरह कार्य करना चाहिए,और ऐसा करने के लिए वे तरीके जिनमें वह जिस इतिहास की सहायता लेता है या इतिहास से जो अपील करता है वह इतिहास अक्सर जीनोफोबिया[2],बहुलतावाद यहाँ तक कि राष्ट्रवाद जैसी विचारधाराओं के तले स्थित होते है| इस तरह के मामलों में इतिहासकार को निरंतर सतर्क होना पड़ेगा; “इतिहास” के लिए  हाब्सवाम कहते हैं कि “राष्ट्रवादी या नस्लीय या रुढ़िवादी विचारधाराओं के लिए इतिहास एक कच्चे माल की तरह है, जैसे हेरोइन के आदी के लिए अफीम होता है|” और हम सभी यह बेहतर जानते हैं कि विश्व में सबसे अच्छी अफीम का क्षेत्र कहाँ है|

      इसके अतिरिक्त,अपने अंतिम निबंध में प्रो.हाब्सवाम ‘अस्मिता इतिहास’ या ऐसा इतिहास जो कुछ विशिष्ट लोगों के लिए लिखा गया है, उसका मजबूती से विरोध करते है| उदाहरण के लिए ऐसा इतिहास जो केवल यहूदियों या केवल अमरीकियों के लिए लिखा गया है वह अच्छा इतिहास नही हो सकता,हालांकि वह उन लोगों के लिए सांत्वना देने वाला इतिहास जरुर हो सकता है जिनके लिए इसे लिखा गया है| यह सभी निबंधों में से दो निबंधों “इनसाइड एंड आउट साइड हिस्ट्री” और “आइडेंटिटी हिस्ट्री इज नॉट एनफ” की केन्द्रीय विषयवस्तु है जिसने पूरी किताब की रूपरेखा बनायी|

      हाब्सवाम ने बहुत पहले ही  – 1949 के लगभग अयोध्या में आराध्य युवा रामलला के पारलौकिक जीवन को भी बिन्दुवत तरह से उल्लेख किया, भारत में जिसके बाद इतिहासकारों और मुस्लिमों को - सभी के अलावा - कई तरह के अनुभव हुए| इन आखिरी के पंद्रह वर्षों में हमने भारत में बातचीत रोक देने वाले इस तरह के कई वाकयों का सामना किया है जैसे: ‘यह आपका इतिहास हो सकता है; परन्तु यह मेरा/हमारा अतीत है|’ और ऐसे में जहाँ राष्ट्रवाद और सशक्त बहुलतावाद फला फूला है, वहां जोरदार तरीके से करने के लिए बहुत कुछ है| यहाँ आज मैं सूक्ष्मता से जांच पड़ताल करना चाहता हूँ, कि क्या इतिहासकार की जिम्मेदारी सामान्यता कल्पनाओं के ऊपर तथ्यों की प्रमुखता को सशक्त करने से ख़त्म हो जाती है; मैंने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि जब हम हाल के भारतीय इतिहास लेखन में देखते हैं तो यहाँ साफतौर पर इतिहासकारों के सर्जनात्मक कार्य सामने आते है, जहां हम सामान्यता,तथ्यों की केन्द्रीयता पर बल नही देते, बल्कि वृतांतों के अन्दर जाने की कोशिश करते हैं जो विशेषकर उन तथ्यों के निर्माण या विशेषकर अतीत की कल्पना का समर्थन करते हैं|

      मैं यह महसूस करता हूँ कि यह कहने की फैशनपरस्त प्रवृत्ति हो चली है कि ‘सब कुछ चलता है’,या कि तथ्यों का निर्माण किया जाता है; परन्तु मैं, प्रो.हाब्सवाम जो तथ्यों और कल्पना के बीच विपरीतता के तथ्य प्रस्तुत करते हैं, के बारे में सोचता हूँ|

जैसा कि एक जगह पर वह कहते हैं कि “या तो एल्विस प्रेस्ले[3] मर गए हैं या वह नही मरे”,वे इसे स्पष्ट रूप से रख रहे हैं, क्योंकि हममें से कई जो इस आरोप प्रत्यारोप के वातावरण में इतिहास लेखन के व्यवसाय में हैं, उन्हें वास्तव में उन तरीकों के साथ विशेषकर उनके लिए ‘उनके अतीत’ के वृतांतों को देकर भी स्पष्ट रूप से शामिल होना पड़ेगा जिसमें समुदाय अस्तित्व में आते हैं| इसलिए मैं ऐसा नही सोचता कि इतिहास के वृतांतों के अत्यधिक खर्चीले या अत्यधिक फैशनपरस्त रूपों की निंदा करना पर्याप्त होगा; किसी को भी इतिहास के शिल्प के तरीकों में लगना पड़ेगा; इतिहासकारों के शिल्प को संपन्न बनाना पड़ेगा|  इसके लिए इतिहासकारों को अपनी औजारों की पेटी (टूल-किट) की ओर देखना जरुरी होगा और इसके लिए अन्य लोगों से भी औजारों को उधार भी लेना पड़ेगा,परन्तु इन्हें नए कल्पनाशील तरीकों को उपयोग करना होगा| इस परिप्रेक्ष्य से मैं पाता हूँ कि प्रो.हाब्सवाम ने इतिहास/कल्पना को बड़ी ही कुशलता से विपरीत खड़ा किया है|
मैं इसे प्रो.हाब्सवाम के उन वक्तव्यों से जोड़ना चाहता हूँ जो कि हम उनकी डॉक्टोरल थीसिस ‘प्री-1914 फेबियंस’ में और उनके विद्रोह के आदिम और पुरातन कार्यों (प्रिमिटिव रेबेल्स,1959) में पाते हैं,यह कार्य वास्तव में उन्होंने लोगों के बीच जाकर और उनसे बातचीत करके किया,जिसने मुख्यधारा के समकालीन इतिहासकारों को अपील नही किया| वह एक जगह कहते है कि क्यों उन्होंने ‘प्रिमिटिव रेबेल्स’ पर अध्ययन के लिए दक्षिण-पश्चिम एशिया की जगह लेटिन अमेरिका को चुना,ऐसा उन्होंने इसलिए किया क्योंकि वे उन लोगों से बेहतर जानकारी प्राप्त कर सकते थे और उनकी भाषा बेहतर जानते थे|

अब जब हम (“ऑन हिस्ट्री फ्राम विलो”)[4] में इस तरह के वक्तव्य पढ़ते हैं जैसे कि “मौखिक इतिहास ने पर्याप्त रूप से प्रविधिपूर्ण विचार प्रक्रिया को आगे नही बढ़ाया है”; या कि जैसा कि वह स्मृतिपूर्वक रखते हैं,मेरे विचार से हम मौखिक इतिहास का तब तक पर्याप्त उपयोग कभी नही कर पायेंगे जब तक कि हम बहुत ही सावधानीपूर्वक इसका हल न निकाल लें कि हमारी स्मृतियों में क्या गलत हो सकता है, जैसे कि हम जानते ही हैं कि पांडुलिपियों की मैनुअल तरह से की गयी फोटोकॉपी के प्रसारण में क्या गलत हो सकता है|” हम पाते हैं कि ये पुराना है| इसमें एक उपयुक्त समानता निसंदेह होती है, लेकिन मैं अनुमान करता हूँ कि हम इसकी कमी को दूर कर सकते हैं,और अपनी संबद्धताओं को निम्न तरह से पुनः निर्मित कर सकते हैं : न्यायालय के क़ानून में किसानों के साक्ष्य की नकलनवीसी में क्या गलत होता है,या राज्य या जज के कर्मचारी द्वारा दंगों पर तैयार की गयी कार्यालयी रिपोर्ट में क्या गलत होता है? इसलिए यह किसी व्यक्ति की पारिवारिक स्मृति का सामान्य सवाल नही है – पोते की स्मृति का जिसे हम कहेंगे – बल्कि यह सवाल उन तरीकों का है जिसमें साधारण आदमी के दस्तावेजों,उनके कार्यों और उनकी चेतना तक हमारी पहुँच को विचलित किया जाता है और यह एक तरह के अभिलेखागार जैसा व्यक्त किया जाता है जो कि इतिहासकारों के लिए न बनाकर मजिस्ट्रेट या जज के लिए बनाया गया हो|

कोर्ट में वह किसान अभियुक्त है जिसके साक्ष्य हम उपयोग करते है, वे साक्ष्य इतिहासकार से नही कहे जा रहे हैं ; वह जज से कह रहा है|

अशिक्षितों के इतिहास लेखन के लिए नए मुद्दों से सामना करने में इतिहासकारों को बहुत कुछ करना पड़ेगा: जो गद्य वे लिखते हैं उसकी शैली से सम्बद्ध होना पड़ेगा| मैं यह फैशनपरस्त इतिहासकार की तरह नही कह रहा हूँ, जो आधुनिकतम फैशन में बिक गया है, बल्कि मैं यह ऐसे इतिहासकार की तरह कह रहा हूँ, जिसने हाब्सवाम से बहुत कुछ सीखा है,हाब्सवाम स्वयं जब वे डोक्टोरल विद्यार्थी थे तब वे अपने प्रथम प्रयास के बारे में याद करते हैं | वह लिखते हैं (पेज 232):
“मैंने अपने कैरियर की शुरुआत युवा इतिहासकार की तरह 1914 के पूर्व के फेबियन समाज से उनके समय के बारे में उनके उत्तराधिकारियों के साक्षात्कार लेते हुए की है और पहला पाठ इससे यही सीखा है कि यदि मैंने साक्षात्कार के विषय के बारे में उन्हें याद कर सकने की बजाय और अधिक स्थापित नही किया होता तो वे साक्षात्कार के लायक नही होते|” 

इसलिए यहाँ कुछ आधारभूत बोध हैं जिनमें मैं और प्रो. हाब्सवाम इस प्रकार की सामग्री का परिचालन करते हुए, जिस पर मैंने भारत में कार्य किया और उन्होंने वहां, दोनों ही अभिलेखागार को लेकर प्रतिबद्ध हैं| हम काल्पनिक मौखिक इतिहास के लिए तर्क नही कर रहे हैं; हम उस तरह के इतिहासकारों के लिए तर्क कर रहे हैं, जो घटनाओं के उत्तराधिकारियों के साथ अर्थपूर्ण बातचीत करने के लिए और अतीत के कार्यों की, वर्तमान जगहों को देखने अभिलेखागारों से बाहर जाते हैं|

और इसलिए मैं सोचता हूँ कि तथ्यों और कल्पना की विपरीतता, या जिस तरह का ख़तरनाक प्रकाश जो हम किताब के आखिर में उस ओर चमकता हुआ देख रहे हैं,जो कि आधुनिकतम उत्तर आधुनिक फैशन से इतिहासकारों के पूरी तरह उत्साहित होने के बारे में है, यह एक तरह से इन मुद्दों को रखना है, जहां इतिहासकार की जिम्मेदारी – जाँच योग्य तथ्यों को उपलब्ध कराना है – इतिहासकार के शिल्प को नए सिरे से निर्माण करने के बजाय अत्यधिक आकर्षण को स्वीकारती है | यह कहने के लिए जरुरी हो सकता है कि क्यों एक कहानी को एक विशिष्ट तरीके से कहा जाए,और हमारी कहानी कहने में हम इसे कैसे समावेशित कर सकते हैं|

एरिक हाब्सवाम : पहले, इतिहासकार के शिल्प पर| मैं सोचता हूँ कि सभी इतिहासकारों को यह स्वीकार करना चाहिए कि जिसके बारे में हम कुछ कह रहे हैं वह वास्तविक है, कुछ वस्तुनिष्ट है; नाम से जो भी अतीत में घटित हुआ | ठीक उसी समय ऐसा करना पर्याप्त नही है,क्योंकि अतीत तक हम केवल अतीत से प्रश्न करके ही पहुँच सकते हैं | इन प्रश्नों की प्रकृति कुछ ऎसी है, जैसा शाहिद ने बहुत ठीक कहा, जिसे हमारे द्वारा बहुत ही सावधानीपूर्वक विश्लेषित करने की जरुरत है, यह जानने के लिए कि हम क्या कर रहे हैं | फिर भी,मेरा साक्ष्यों पर अधिक बल देने का कारण यह है कि हम आधारभूत रूप से उसको बताना चाहते है या खोजना चाहते है जो वास्तव में घटित हुआ है; और मेरे लिए साक्ष्य और कल्पना के बीच अंतरों का प्रकट होना बहुत ही महत्वपूर्ण है| उदाहरण के लिए मैं यह कहने का साहस करता हूँ कि ज्यादातर देशों में यह भली भांति जाना गया मिथक होता है, कि प्रसिद्ध नेता वास्तव में मरे नही है बल्कि जीवित हैं – सम्राट बारबारोसा एक दिन पुनः लौटेंगे, वे वापिस नही आयेंगे जब तक कि वे एक गुफा में छिपे हुए हैं| अब मिथक स्वयं एक तरह का तथ्य है और इसलिए इसे अध्ययन और विश्लेषण की जरुरत है ; परन्तु यद्यपि सम्राट बारबारोसा मरा है या नहीं, यह ऐसा है जिसे स्थापित किया जा सकता है हालांकि यह विश्वास करना कठिन है कि वह अभी भी कहीं जीवित है,लेकिन यह सत्य है कि वह जीवित नहीं है | हालांकि मैं सोचता हूँ इसे पहले मान लेने को, कि वे जीवित है, आप विश्लेषण की शुरुआत कह सकते हैं,और मैं सोचता हूँ कि हम सब इस पर सहमत हैं|

      दूसरा,हमारे द्वारा किये जाने वाले प्रश्नों की सीमा भी उन स्रोतों से निर्धारित होती है जिन स्रोतों को हम उपयोग में लाते हैं| यह पश्चिमी इतिहास जो सत्रहवीं सदी के आखिर से उन्नीसवीं सदी के मध्य तक जैसा बौद्धिक रूप से विकसित हुआ है,उसके बारे में कम से कम पारंपरिक रूप से साफतौर पर कहा जा सकता है कि वे अभिलेखागारों में संग्रहित बचे हुए दस्तावेजों की प्राथमिकता और वरीयता के बारे में एक साथ सोच रहे थे| यद्यपि अब हम जानते है कि किन्हीं भी मायनों में ये केवल स्रोत नहीं हैं,लेकिन जो कुछ भी हमें प्रश्नों के उत्तर देने में सहायता करते हैं वह स्रोत ही हैं| हालांकि इतिहासकार के शिल्प का सार यही है कि वह स्रोत की आलोचना से ही शुरुआत करे| आपको जानना पड़ेगा कि अभिलेखागारों में क्या है,यह जानना पड़ेगा कि वे झूठ बोल रहे है कि नहीं,कि वास्तव में वे कैसे हैं, या अन्य किसी तरह की गलतियां तो नही कर रहे हैं,और यह प्रक्रिया प्राप्त सभी प्रकार के स्रोतों पर लागू की जाती है : हम मौखिक इतिहास की बात कर रहे हैं| उदाहरण के लिए यदि हम आइकोनोग्राफिक[5] इतिहास जो कि लगातार महत्वपूर्ण होता जा रहा है पर बात कर रहे हैं तो यह उस पर भी लागू होता है| उदाहरण के लिए भविष्य में गंभीर स्रोत फोटोग्राफ्स की आलोचना करना भी लोगों के लिए बहुत आवश्यक होगा, चूँकि आजकल फोटोग्राफ्स का खेल भी चारो तरफ बहुत ही आसान हो गया है| इसलिए स्रोत की आलोचना आवश्यक है; और ऐसा इसलिए है कि लोग जो इस प्रक्रिया में शामिल हैं अक्सर बहुत ही बोरिंग की तरह आते हैं, फिर भी वे बहुत ही महत्वपूर्ण है | इसके बगैर हम नही जानते कि हम क्या कर सकते हैं| अतीत के बारे में हमारे वक्तव्य तार्किक रूप से सामंजस्यपूर्ण,अन्य साक्ष्यों और बाक़ी तर्कों के साथ भी सामंजस्यपूर्ण होने चाहिए|

      और अंततः हमें आपस में संवाद करना चाहिए| मैं सोचता हूँ कि संचार की प्रकृति में बहुत ही अधिक खतरे उत्पन्न होते हैं; क्योंकि संचार भी अपने आप में एक अलग तरह का शिल्प है| इसमें संभव है कि आपको नितांत बेकार तथ्यात्मक वक्तव्य आयें| उदाहरण के लिए दस्तावेजों का या शब्दकोशों का संकलन भावनात्मक या पक्षपातपूर्ण तरीकों के खतरों को कम करता है| बहरहाल संचार स्वयं एक ख़तरा है, और यही वे खतरे हैं जिनसे सावधान रहना पड़ेगा|

      इतिहासकार के शिल्प में तीन अन्य तत्व हैं जिनसे सावधान रहने की जरुरत है| अंग्रेजी के प्रसिद्द उपन्यासकार एल.पी.हार्टले  का एक प्रसिद्द कथन है : “अतीत एक दूसरा देश है जहाँ लोग विभिन्न तरह की चीजें करते हैं”| आवश्यक रूप से एक दूसरा तरीका है, यह कहने का कि इतिहासकार के शिल्प में एक बड़ा पाप एनाक्रोनिज्म[6] है: अतीत की चीजों के बारे में समकालीन अर्थों में सोचना, जो चीजें बहुत ही अलग थीं| इसमें अन्ततोगत्वा बहुत अधिक अनुभव की जरुरत होती है क्योंकि शुरुआत में लोग सोचते हैं कि अतीत में जो लोग थे वे ठीक हमारे ही जैसे थे| हाँ कुछ मामलों में वे ठीक एक जैसे हो सकते हैं ; परन्तु वे क्या करते थे कैसे करते थे क्या सोचते थे, वह आवश्यक रूप से वही तरीका नही था जैसा हम करते हैं| यह नितांत आवश्यक है कि इससे सावधान रहा जाए|

      दूसरा यह कि आपको यह समझने का प्रयास करना पड़ेगा कि वे क्या हैं न कि केवल यह कि वे अलग हैं| परन्तु कुछ मामलों में स्वयं के बारे में सोचने का प्रयास करना चाहिए कि जिस तरह से आप अपने बारे में सोचते हैं, वे भी वैसा ही सोचते थे; समानुभूति से, यदि आप इसे पसंद करें| यह आवश्यक है परन्तु पर्याप्त नही है| मुझे लोग विद्यार्थी की तरह लाये थे, जो सोचते थे कि एक ही चीज जो करने की है, वह है कि आप एक कालखंड पढ़ें जब तक कि लोगों की बात आप सुन सकते हैं, और यही पर्याप्त है| यह पर्याप्त नही है परन्तु आपको ऐसा करना आना पड़ेगा|

      और तीसरा जो एक तर्क है कि क्यों मैं ब्राउडेल का इतना बड़ा प्रशंसक हूँ वह है विशुद्ध जिज्ञासा| इतिहासकार को सब कुछ जिसे वह देखता है उसके बारे में जिज्ञासु होना चाहिए विशेषकर उन चीजों के बारे में जो विशेषकर साक्ष्य नहीं हैं,बल्कि उन चीजों के बारे में, जो अभिलेखागार की हैं या स्रोत की ओर से आयीं हैं| और ब्राउडेल, एक महान इतिहासकार ने एक बार मुझसे कहा था कि इतिहासकार कभी भी अवकाश पर नहीं होता| कहा जाए कि वह हमेशा कर्तव्य पर होता है,वह कहते हैं कि जब कभी मैं ट्रेन में भी होता हूँ तब भी मैं कुछ सीखता हूँ| मैं सोचता हूँ कि यह बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि यह एक दूसरा तरीका है यह कहने का, कि “हमेशा नयी असाधारण घटना के लिए अपने को खुला रखो”|

      यदि आप खेल के रिवाज को पसंद करते हैं, जिनका पालन इतिहासकार करते हैं तो खेल के बहुत सारे नियम हैं| यही मुझमें जिम्मेदारी की भावनाओं को पैदा करता है| व्यापक तौर पर आज बहुत ही नकारात्मक उत्तरदायित्व हैं और यही वे हैं जिनसे हमें इतिहास की बुराईयों से  लड़ना है| मेरे जीवन के अन्य समय की तुलना में पिछले तीस सालों से ज्यादा का समय, जिसमें हम रह रहे हैं, वह संभवतया वह समय है जिसमें ज्यादा मिथक,आविष्कार, और इतिहास के बारे में झूठ रखे गए हैं, यह समय कई कारणों से लंबा भी हो सकता है| उदाहरण के लिए एक स्पष्ट मामले को ही लें; यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद लगभग पचास वर्षों के बारे में ज्यादातर इतिहास शांत (फ्रीज) है| उदाहरण के लिए दूसरे पक्ष पर विचार करना भी बहुत कठिन है: फासिज्म, नाजी की ओर से – उन्हें वैसे ही देखा गया जैसे वे कुछ दुष्ट हों या हमारे विपरीत जैसा कुछ,उन्हें केवल ऐसे ही देखा जा सका| एक तथ्य कि द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनों ने भी बहुत अधिक परेशानी झेली, यह कहने में लोग हिचकिचाते हैं| इसलिए लगभग पचास सालों के बाद,शीत युद्ध के अंत के बाद  कई संख्या में इस तरह के कई क्षेत्र खुल गए| और इसने इसे सुधारने को संभव बनाया कि हम आज न केवल यह कहते हैं कि इटालियन या जर्मन फासीवाद ऐतिहासिक व्यवस्था की वजह से था, बल्कि इस तरह के ऐतिहासिक मिथकों को भी हम प्रचलित करते हैं जो इसमें निहित हैं|

      हमारी दूसरी और स्पष्ट जिम्मेदारी ‘अस्मिता इतिहास’ के महान उदय से सम्बंधित है| राष्ट्रवादी इतिहास एक बहुत ही अच्छा उदाहरण है, परन्तु इसमें धार्मिक,साम्प्रदायिक या अन्य सामूहिक इतिहास भी शामिल है| आप पिछले तीस वर्षों से इसका अवलोकन कर सकते हैं जो समय ऐतिहासिक संग्रहालयों (म्यूजियमों),ऐतिहासिक साइटों और मनोरंजन उद्यानों (थीम पार्कों) के निर्माण का महान काल रहा है| उदाहरण के लिए 1980 में दो राष्ट्रीय इतिहास संग्रहालयों का निर्माण जर्मनी में और एक जापान में हुआ| परन्तु एक ऐतिहासिक साईट या संग्रहालय का निर्माण कराने का अर्थ एक तरह की इतिहास दृष्टि को शुरू करना है| यह सब विवादास्पद प्रश्नों को खड़ा करता है| यह यूनाईटेड स्टेट और अन्य देशों में दोनों के लिए सही है| आप यूनाईटेड स्टेट में ही देख सकते हैं कि कैसी एतिहासिक प्रदर्शनी जैसे युद्ध स्मारक (वार मेमोरियल),होलोकास्ट मेमोरियल,पहले अणु बम का मेमोरियल,तात्कालिक रूप से बढ़ती एतिहासिक समस्याएं,एतिहासिक व्याख्याओं की समस्याएं हैं और अंततः जो एक पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण को व्यक्त कर सकते हैं| ऐसा पिछले तीस वर्षों में विभिन्न ऐतिहासिक कारणों से ज्यादा हुआ है| बिखरे साम्राज्यों को वैसे ही व्यापक रिक्तता लिए सृजित किया गया है, जैसे वे उस समय थे|

      नए देशों,नए राज्यों को दो चीजों की जरुरत है| एक तो एक झंडे की और एक इतिहास की – इन दोनों के बिना वे अस्तित्व में ही नही हो सकते| और जो लोग इन्हें स्थापित करते हैं वास्तव में उनकी उस तरह की दिलचस्पी इतिहास में नही है, जैसी कि इतिहास के शिल्पकार में होती है| उनकी दिलचस्पी उसमें है जो सबको बेहतर महसूस कराये| सामान्यतया वे महत्वपूर्ण मिथकों में दिलचस्पी रखते हैं और इन महत्वपूर्ण मिथकों की प्रवृत्ति अनिवार्य रूप से मिथकीय होती है| यह बहुत ही सामान्य समस्या है| मेरी एक मित्र इस समय यही कुछ कर रहीं हैं,जैसा पहले किसी ने नही किया| वह चीन में पूरे लांग मार्च के दौर में गयीं और उन्होंने लांग मार्च को नए सिरे से दर्ज किया,उत्तरजीवियों से बात की,यह जानने के लिए स्थानीय अभिलेखागारों में गयीं कि वे उस समय के बारे में क्या कहते हैं, जब लाल सेना वहां आयी थी| चीन के मामले में में लांग मार्च अब महत्वपूर्ण मिथक बन गया है| और इस बात में अब कोई प्रश्न नही है कि साठ या सत्तर सालों बाद इसे देखने के दुबारा किये गए प्रयास से दिखे महत्वपूर्ण परिवर्तनों के बगैर यह नही दिखेगा, इसलिए ये कुछ नए ऐतिहासिक मिथक या ‘परम्पराओं की खोजें’ हैं| इनमें से कुछ स्पष्ट तौर पर हानिरहित हैं, परन्तु उनमें से कुछ संख्या राजनीतिक खतरों वाली है| मेरे पास उनके बारे में समझाने के लिए बहुत कुछ नही है, जो कड़वे संघर्ष में रह रहे थे कि उनके साथ स्कूल की पाठ्यपुस्तकों में,स्कूल के मैनुअल्स में क्या हुआ,उन मसलों के बारे में जो मैं उठा रहा हूँ| बहुत ही संक्षेप में सारांशतः कहा जाए तो तथ्यों और कल्पना के बीच भेद रखना बहुत ही आवश्यक हैं| मुझे लगता है कि क्या मैं इस बारे में बहुत ही कठोर हूँ?

      मैं ऐसा नही सोचता| इसे कुछ अलग तरह से रखने के लिए, हमें  शुद्ध पौराणिक कथाओं के इतिहास, तार्किक इतिहास तक जाना चाहिए,तार्किक इतिहास जिसे कि कई बहुत अच्छे इतिहासकार लिख रहे हैं | हम विशेषकर,मेरे जैसे लोग,जो मार्क्सवादी है या जो भी,वे अतीत को पुनर्निर्मित करने में,पुनर्संग्रहण में और व्याख्या करने में ही केवल दिलचस्पी नही रखते बल्कि उसे समझाने में भी दिलचस्पी रखते हैं| परन्तु आज इतिहासकारों के बीच भी यह प्रवृत्ति है कि उनकी दिलचस्पी समझाने में कम बल्कि ‘अर्थ’ बताने में ज्यादा है| इसका क्या ‘अर्थ’ है और किसके लिए? हमारे लिए| हम कौन हैं,और किसके लिए ये ‘अर्थ’ ज्यादा महत्वपूर्ण है? ऐसे प्रश्न मुझे बहुत ही महत्वपूर्ण दिखते हैं, क्योंकि एक अर्थ में,”अर्थ” वह है जिसके बारे में आप तर्क के लिए जा सकते हैं; “अर्थ” एक धारणा है जिसमें क्या हुआ है और क्या नही हुआ के बीच स्पष्ट भेद नही है| एक ही चीज का अर्थ पूरी तरह भिन्न हो सकता है | मैं मूल रूप से अर्थ के लिए खोज को, ऐतिहासिक व्याख्या के लिए खोज से मिलाने के प्रयासों के खिलाफ हूँ| “अर्थ” में ऐसा कुछ नहीं है, जिस पर इतिहासकार का शिल्प लागू हो सके| 

      यद्यपि,अर्थ की खोज संयोगवश बहुत ही दिलचस्प इतिहास का निर्माण कर सकती है| उदाहरण के लिए हाल के बीस तीस वर्ष एक बार फिर स्मृति और स्मृतियों के लिए एक बड़े  फैशन के रहे हैं – जो यह जानने के लिए नही थीं कि वास्तव में अतीत में क्या घटित हुआ बल्कि यह जानने के लिए थीं कि उस घटित हुए के बारे में लोग क्या सोचते थे और क्या महसूस करते हैं| यह इतिहास नही है बल्कि एक बार प्रतिस्थापित इतिहास है| यहाँ ऐसे भी इतिहासकार हैं जो दो या तीन बार प्रतिस्थापित किये इतिहास पर कार्य कर रहे हैं| अब,इसने बहुत ही सुन्दर फ़ालतू विषयवस्तु का निर्माण किया है, परन्तु संयोगवश इसने कुछ बहुत ही दिलचस्प अध्ययनों को दिया है,उदाहरण के लिए जैसे युद्ध की स्मृतियों का अध्ययन| एक महान फ्रेंच श्रृंखला जो वास्तव में इससे शुरू हुई, उन सबको ‘जगहें,स्मृतियों के स्थान’ (द प्लेसेस,द लोकेशन ऑफ़ मेमोरी) कहा गया| हालांकि इन्हें खोलने से नए ऐतिहासिक स्रोत उपलब्ध हो चुके हैं| मैं इस प्रवृत्ति को लेकर संशयी हूँ क्योंकि मैं उन लोगों पर संदेह करता हूँ जो कहते हैं: “मेरे पास मेरे सत्य हैं, मुझे इससे मतलब नही है कि आपका सत्य क्या है,मेरा सच महत्वपूर्ण है भले ही आपके पास साक्ष्य हों|” मेरे लिए यह विश्वास करना महत्वपूर्ण है कि यह पाया गया है,इसके अलावा कुछ नही| इसलिए पौराणिक कथाओं की समस्या एक खतरा है जो केवल यही नहीं है जो इतिहासकारों को, राजनीतिज्ञों और सिद्धान्तवादियों से विभाजित करता है, बल्कि वह इतिहास के व्यवसाय के भीतर भी दौड़ता है| मैं तथ्य और कल्पना के बीच भेद में विश्वास करता हूँ जिसे दिखाया जा सकता है और जिसके बारे में लोग महसूस करते थे, और अब जो उसके बारे में महसूस किया जाता है, वह ही पूरी तरह केंद्र में हैं|

नीलाद्री भट्टाचार्य: जैसा कि आप सब जानते है कि प्रो. हाब्सवाम हमारे समय के महान मार्क्सवादी इतिहासकारों में से एक हैं| इसलिए मैं मार्क्सवादी इतिहास पर केन्द्रित करूँगा, उस इतिहास पर जो उन्होंने और अन्य इतिहासकारों ने ब्रिटिश मार्क्सवादी परम्परा में व्यवहार में लाया है| मैं अपने को प्रश्नों और टिप्पणियों के चार सेटों में सीमित रखूँगा| पहला, ब्रिटिश मार्क्सवादी इतिहास के बारे में हैं: प्रो..हाब्सवाम,मैं ब्रिटिश मार्क्सवाद के भीतर आपकी बौद्धिक स्थिति के बारे में थोड़ा बहुत कहने के लिए आपको मनाना चाहता हूँ, जब हम ब्रिटिश मार्क्सवादी इतिहासकारों पर बात करते हैं तब सामान्यतया हम चार या पांच नामों का जिक्र एक साथ करते हैं वे हैं: ई.पी.थोम्पसन,क्रिस्टोफर हिल,रोडनी हिल्टन और विक्टर कियेरनन – सबका ज़िक्र ऐसे करते हैं, मानो सभी समरूप हों सबके सरोकार एक जैसे हों,जो एक जैसी आवाज में सामूहिक रूप से कहते हों और जो इतिहास को एक जैसे तरीके से पढ़ते हों| निसंदेह आप सभी सामूहिक आन्दोलन के सभी हिस्सों में कुछ तरीकों में साथ रहे हैं| परन्तु मैं आप लोगों के बीच के मतभेदों को समझना चाहता हूँ – वे मतभेद जिन्हें मैं सोचता हूँ कि काफी गंभीर थे|

      यदि हम ब्रिटिश मार्क्सवादी इतिहास को देखें तो मैं सोचता हूँ कि हम कम से कम दो विशिष्ट परंपराओं को इंगित कर सकते हैं,दोनों ही एक दूसरे की पूर्ति करने वाली,पालन-पोषण करने वाली और एक दूसरे का सम्मान करने वाली रहीं हैं| इनमें से एक परंपरा को विलियम मोरिस,जॉन रस्किन,नवजागरण विरोधी परंपरा,रोमांटिक्स और शुरुआती मार्क्स से जोड़कर देख सकते हैं| यह मार्क्सवादी परंपरा है जो ज्यादातर लोक या समुदाय पर केन्द्रित करती है; और वह मूल्यों,नीतियों,मान्यताओं,को खोजती है| इस परंपरा की प्रवृत्ति, पूर्व औद्योगिक इंग्लैण्ड या अन्य पूर्व औद्योगिक समाजों की खोज करने,दस्तकारों,किसानों,वनवासियों और अन्य जो किसी न किसी प्रकार से पूंजीवाद के भयंकर आक्रमण और आधुनिकता की शक्तियों का सामना कर रहे थे उनका अध्ययन करने की थी | वह उन रास्तों को तलाशता है जिनसे वे पूंजीवाद का सामना कर सकें और अपने जीवन में होने वाले परिवर्तनों के खिलाफ प्रतिरोध कर सकें|  यह वह इतिहास है जो रूपांतरण की सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक प्रक्रियाओं से ज्यादा, जीवन के सांस्कृतिक तरीकों को खोजता है|

      ब्रिटिश मार्क्सवादी इतिहास की दूसरी परंपरा वह है जो नवजागरण विरोधी विचारों के प्रति अधिक संशयी और रोमांटिक वाद की अधिक आलोचक है| यह संस्कृति की बजाय राजनैतिक अर्थशास्त्र पर अधिक बल देती है, और लोगों के दैनंदिन जीवन की बजाय सामाजिक परिवर्तन की मैक्रो प्रक्रियाओं को ज्यादा देखती है| वह आधुनिक विश्व को बनाने और पूंजीवाद की वृद्धि में महत्वपूर्ण रहे आर्थिक,सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तनों का अध्ययन करती है| इसलिए यह पहले ज्यादातर संस्कृति पर और दूसरा अर्थव्यवस्था पर केन्द्रित करता है; पहला फोकस इसका सूक्ष्म स्तर पर है,और सांसारिक और अवकाश संबंधी ध्यान ज्यादा सीमित है;दूसरा फोकस दीर्घ विकास पर है| कुछ मामलों में मैं सोचता हूँ कि ई.पी.थाम्पसन पहली परंपरा के प्रतीक है, तो प्रो.हाब्सवाम आप दूसरी परंपरा के साक्षात मूर्त रूप हैं| आपने आदिम विद्रोहों (प्रिमिटिव रेबेल्स),बेंडिटस,घुमक्कड़ कारीगरों पर लिखा;व्यापक ढंग से “छोटे लोगों” मजदूरों किसानों पर लिखा| परन्तु यदि हम आपके सम्पूर्ण कार्यों को देखें तो यह स्पष्ट है कि आप पूंजीवाद के विकास की बड़ी प्रक्रियाओं को देख रहे हैं – आर्थिक,सामाजिक,सांस्कृतिक सभी प्रक्रियाओं को - और आप निश्चित आर्थिक और राजनैतिक ‘विकास’ को इतिहास के प्रक्षेप पथ के निर्धारक की तरह देख रहे हैं| पहले तीनों संस्करणों,क्रान्ति का युग,पूंजी का युग, और साम्राज्य के युग के शुरुआती अध्यायों में आप इन ‘विकासों’ को देते हैं  और तब इसके परिणामों को देखते हैं – सांस्कृतिक,सामाजिक और अन्य सभी परिणामों को| पहली परंपरा के भीतर विशेषकर ई.पी.थाम्पसन के लेखन में वास्तविकताओं की सांस्कृतिक बनावट पर बहुत अधिक बल दिया गया है,इस तरह का बल जो सामान्य तौर पर उत्तर आधुनिकतावाद से नही जुड़ता| आपके तर्क के अनुसार जो आर्थिक और राजनैतिक परिवर्तन दिखाई देते हैं, उन्हें संस्कृति,समाज और सामाजिक संस्थानों के साथ क्या हुआ में देखा जाना अधिक महत्वपूर्ण है|

      आप इन अंतरों को कैसे मालूम करते हैं? ऐसा क्यों है कि ई.पी.थाम्पसन या आपने वास्तव में इन अंतरों पर कभी भी बात नही की? आप सभी ने अन्य परम्पराओं पर तो टिप्पणियाँ कीं परन्तु मार्क्सवादी इतिहास परंपरा के आतंरिक मतभेदों पर ज्यादा बात नही की|
दूसरा: मैं पूंजीवाद और औद्योगीकरण पर आपके विशिष्ट कार्य पर कुछ टिप्पणियाँ करना चाहता हूँ| आपने क्रान्ति के युग और पूंजी के युग में माना कि औद्योगिक रूपांतरण जो कि 1770 और 1780 में शुरू हुआ,उसने 19वीं  सदी के शुरू में उड़ान भरी,1850 के लगभग वह परिपक्व हुआ और 19 वीं सदी के अंत तक प्रभावी हो गया| हाल के ऐतिहासिक लेखन में ये अनुमान विवादित हो चुके हैं| तर्क कि इंग्लैण्ड पहला औद्योगिक राष्ट्र था और यह कि औद्योगिक क्रान्ति 1780 में शुरू हुई और 19वीं सदी के मध्य तक परिपक्व हुई, यह भी कई तरह से प्रश्न के घेरे में है| उसमें माना गया था कि इंग्लैण्ड में विकास नाटकीय रूप से वैसा नही हुआ था, जैसा कि पूर्व में ही अनुमान किया गया था,कृषक वर्ग वहां उस तरह से लुप्त नही हुआ था, जैसा कि पहले से संकेत किया गया था – संकेत जिनकी पुष्टि आपके लेखन में मिलती है,  और वास्तव में पूरी 19वीं सदी के दौरान कई तरहों से कृषक वर्ग बना रहा |
      यह भी माना गया कि इंग्लैण्ड में तकनीकी विकास भी वैसा नही हुआ जैसा कि पूर्व में माना गया था,वास्तव में 19वीं सदी में आर्थिक परिदृश्य में फैक्ट्री उद्योग प्रभावी नही थे,20 वीं सदी की शुरुआत में ही फैक्ट्री उत्पादन महत्वपूर्ण हो पाया| 19 वीं सदी में औद्योगिक जनसंख्या प्रमुख रूप से फैक्ट्री क्षेत्र के बाहर थी, और पूर्व औद्योगीकरण,लघु स्तर का दस्तकारी उत्पादन बहुत महत्वपूर्ण था| अंग्रेजी समाज के निर्माण के लिए इस पूंजीवाद की प्रकृति में कठिनाईयां थीं-इसकी बुर्जुआजी प्रकृति | और इस तर्क को न केवल अकेले परिवर्तन विरोधी इतिहासकारों ने विकसित किया, बल्कि रेडिकल मार्क्सवादी इतिहासकारों - राफेल सैमुअल,पेरी एंडरसन और अन्य इतिहासकारों ने भी विकसित किया| आज आप अपने लेखन को कैसे देखेंगे और इन संशोधनवादियों के तर्कों के बारे में क्या प्रतिक्रिया देंगे?

      परन्तु कुछ टिप्पणियाँ जल्दी से उत्तर आधुनिकतावाद की आपकी आलोचना के बारे में जिसे पूर्व में शाहिद अमिन ने उठाया था| मैं यहाँ बातचीत को थोड़ा विस्तार देना चाहता हूँ| मैंने उत्तर आधुनिकतावाद पर आपकी सभी टिप्पणियाँ आपकी जीवनी, साथ ही साथ ऑन हिस्ट्री और अन्य स्थानों में पढ़ीं हैं| आप उत्तर आधुनिकतावाद को एक खतरनाक परंपरा की तरह देखते हैं  और आप इससे संयुक्त सभी विचारों को लेकर बहुत ही सशंकित हैं| परन्तु क्या हम यह संकेत  नही दे सकते थे कि उत्तर आधुनिकतावाद के भीतर कई परम्पराएं हैं जो उतनी खतरनाक नहीं हैं जितनी कि आप सोचते हैं; उत्तर आधुनिकतावाद मार्क्सवाद की तरह है, जिसमें कई भिन्नताएं हैं,और कई परम्पराएं हैं| और ब्रिटिश मार्क्सवाद में जो कई तरह के अनुमानों और विचारों को सूत्रबद्ध किया गया था, उनमें से कईयों को वास्तव में उत्तर आधुनिकतावाद में पुनः आकार दिया गया है और पुनः स्पष्ट किया गया है| उदाहरण के लिए कोई तर्क कर सकता है कि कुछ तरीकों में उत्तर आधुनिकतावाद शुरुआती आधुनिकतावादी टीलियोलाजी[7] की आलोचना कर रहा है| जो इतिहास के विकास और रूपांतरण को, तर्कहीनता के युग से तर्क के युग तक, बर्बरतावाद के युग से सभ्यता के युग तक,अतार्किकता से तार्किकता तक,देखती है – टीलियोलोजी जो अस्मिता और आधुनिकता के स्वयं के अहं को वैधता देती हैं| क्या मार्क्सवादियों के लिए इन टीलियोलोजी से श्रेष्ठ होना महत्वपूर्ण नही है?
      उत्तर आधुनिकतावाद के बारे में कोई यह भी तर्क कर सकता है कि वह सार्वभौमिक तर्क के दावों के बारे में प्रश्न कर रहा है और अन्य आवाजों,अन्य तर्कों,देखने के अन्य तरीकों,विश्व के बारे में दृष्टि बनाने के अन्य तरीकों की ओर देखने का प्रयास कर रहा है| और यही वे चीजें हैं जिनके बारे में आप सभी मार्क्सवादी परंपरा में रहकर तर्क कर रहे थे,यह जरूर है कि एक अलग नजरिये से,जब आप अन्य लोगों के विचारों,दृष्टि और यूटोपिया को देख रहे थे और इतिहास को नीचे से ऊपर की ओर मालूम कर रहे थे| उसी तरह उत्तर आधुनिकतावाद,वास्तविक विश्व की सास्कृतिक बनावट को देख रहा है, और यह मान रहा है कि संस्कृति – प्रतीक,चिह्न और रूपकों- की ‘वास्तविक’ को आकार देने में संघटित भूमिका है| क्या यह सही नही है कि आप सब लोग,आप में से कई,अलग अलग भाषाओं में यह मान रहे थे कि संस्कृति महत्वपूर्ण है? विशेषकर ई.पी.थाम्पसन इसे जोरदार तरीके से मान रहे थे|

      जब हम उत्तर आधुनिकतावाद में परंपराओं को देख रहे हैं,तब क्या हम विचारों के एक विस्तार को चिह्नित नही कर सकते जो गहरी मार्क्सवादी सोच को सृजनात्मक तरीके से विनियोजित कर सके? पूरे विश्व में कई मार्क्सवादी विद्वानों ने आलोचना के कानूनी सिद्धांत (क्रिटिकल लीगल थ्योरी)[8] में,जेंडर अध्ययन में और मार्क्सवादी इतिहास में ऐसा किया है| क्या हमारा ढंग और अधिक खुला हुआ नही हो सकता, जो आलोचनात्मक तो हो परन्तु उपेक्षापूर्ण न हो,अन्य परंपराओं के साथ हमारे मतभेदों को चिह्नित करने वाला ही न हो, बल्कि ऐसा भी जो किसी औचित्यपूर्ण विचार के समावेशन करने की ओर ध्यान आकृष्ट करने वाला हो,या यह उत्तर आधुनिकतावाद के भीतर या किसी अन्य आलोचनात्मक विचारों के भीतर ही क्यों न हो? आपकी जीवनी पढ़ते हुए मैंने महसूस किया कि आप 1980 तक की परंपराओं को लेकर अत्यधिक उदार रहे हैं; परन्तु 1980 के बाद सभी परंपराओं पर आप बहुत ही आलोचनात्मक रहे| एनाल्स[9] में आपकी टिप्पणियाँ बहुत ही उदार हैं जबकि राजनैतिक रूप से कई फ्रेंच इतिहासकार जो आपकी सराहना करते हैं, वे काफी अनुदारवादी हैं| परन्तु हाल की इतिहास,मानवशास्त्र और आलोचना सिद्धांत के भीतर की प्रवृत्तियों के बारे में आप कम उदार हैं|

एरिक हाब्सवाम : हाँ,यह कहने में आप बिलकुल सही हैं कि कई तरह भिन्न प्रवृत्तियां हैं,यदि आप पसंद करें तो मैं यह कहना चाहूँगा कि ब्रिटिश मार्क्सवादी इतिहासकार समरूप समूह नही थे| वे मार्क्सवादी हुए परन्तु उन्होंने विशेष रूप से समूह के आंतरिक मतभेदों पर दबाव नही दिया, हाँ बाद में जरुर दिया| उदाहरण के लिए बाद के चरण में इस सन्दर्भ में कोई प्रश्न नही है कि ई.पी.थाम्पसन क्लासिकल मार्क्सवादी दृष्टिकोण के बड़े आलोचक हुए|

      समूह के बारे में स्वयं,मैं सोचता हूँ कि हमें समझना चाहिए कि हम केवल मार्क्सवादी समूह भर नही थे| हम इंग्लैण्ड की एक व्यापक प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व कर रहे थे,एक ऐसी ऐतिहासिक प्रवृत्ति का,जो कि 1890 में शुरू हुई और 1950 और 60 में चरम पर पहुँच गयी| यह आवश्यक रूप से 19वीं सदी की सांस्थानिक अभिलेखागार-आधारित क्लासिकल,पारंपरिक,राजनैतिक इतिहास की एक आलोचना थी, और समाज विज्ञान,अर्थशास्त्र,सामाजिक मानवशास्त्र की निष्कर्षों को बाहर लाने के लिए विस्तार दे रही थी – इनमें से कुछ उस समय में, वास्तव में सृजित हो रहीं थी, उदाहरण के लिए जैसे समाजशास्त्र,सामाजिक मानवशास्त्र| अब वह इसलिए हुआ क्योंकि यह अंतर्राष्ट्रीय प्रवृत्ति थी| ग्रेट ब्रिटेन जिसने कई कारणों से हमें बहुत दूर से लिया,वहां मार्क्सवादी इतिहासकारों के छोटे समूह ने अनुपातहीन रूप से महत्वपूर्ण भूमिका अदा की| उदाहरण के लिए वहां हमने जो अतीत और वर्तमान के जर्नल्स निकाले या कहें कि स्थापित किये, उनमें इतिहास में आधुनिकतावादी, अपनी विचारधारा की परवाह किये बगैर स्वयं को, विशेषकर इस आन्दोलन के एक अंग की तरह व्यक्त कर सकते थे|

      फ्रांस में इसी के समकक्ष एनल्स था,इसके साथ हुआ यह कि इसे बहुत ही मजबूत संस्थानिक सहयोग तो प्राप्त था, परन्तु इसमें कोई मार्क्सवादी घटक नही था – फ्रांस में मार्क्सवादी घटक महत्वपूर्ण नही था| एनल्स की जड़ें अलग तरह की थीं : समाजशास्त्र;फ्रेंच एतिहासिक भूगोल;सांखिकीय | ऐसा अन्य देशों में भी था| बहरहाल,इन सभी आधुनिकतावादियों ने  स्वयं को संशोधनवादी रुढ़िवादी हिस्टीरियोग्राफी के खिलाफ वैसी ही लड़ाई लड़ते हुए महसूस किया, भले ही वे विचारधारात्मक रूप से एक दूसरे से अलग थे| उदाहरण के लिए कैम्ब्रिज में ज्यादातर युवा मार्क्सवादियों के मेरे एक शिक्षक माउनिया पोस्टन, एक आर्थिक इतिहासकार, बहुत ही जोशीले मार्क्सवाद विरोधी और साम्यवाद विरोधी हुए ; फिर भी वे स्वयं जानते थे कि युवा मार्क्सवादी रुढ़िवादियों के खिलाफ उनकी ही तरफ थे,वैसे ही हम भी जानते थे कि वह और अन्य लोग भी हमारी तरफ हैं| इसलिए हमने ब्रिटिश मार्क्सवादी इतिहास को इस व्यापक धारा से विलग नही किया| यह बहुत ही महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कम से कम यूरोप में तो यह व्यापक धारा सम्पूर्ण रूप से सफल थी|

      इस कारण फ्रांस और ब्रिटेन दोनों ही देशों में और बाद में जर्मनी में कुछ, मेरी पीढ़ी के इतिहासकार, इतिहास के रूपांतरकर्ताओं के प्रभाव में थे; और उन्होंने इतिहास को रूपांतरित किया| आज उस तरह की एतिहासिक पाठ्य-पुस्तकें नही लिखी जा सकतीं जैसी कि वे उस समय लिख चुके थे| यहाँ तक कि उनमें से कुछ, जिनसे ज्यादा सहमत हुआ जा सकता हैं, वे भी उससे अलग तरह से लिखीं गयी जैसे कि उन दिनों में वे रहे होंगे,इसलिए वह महत्वपूर्ण है| और ब्रिटिश मार्क्सवादियों के वास्तव में अपने आतंरिक मतभेदों के बारे में बातचीत नही करने के कारणों में से एक कारण यह है, कि हम सभी इस सामान्य दृश्य के हिस्से थे| उदाहरण के लिए हमने पाया कि जब हम अतीत और वर्तमान को स्थापित करते थे, तब हम चाहते थे कि वह सभी आधुनिकतावादियों के सामने व्यापक तरह से लोकप्रिय हों| कुछ वर्षों पश्चात् जब हमने स्वयं को स्थापित किया तब लोग हमारे साथ काम करना चाहते थे,वे कहते थे कि “अच्छा,आप मार्क्सवादी हैं,हम, वे स्वयं जिसे ‘वैज्ञानिक इतिहास का जर्नल’ कहते थे,उसमें कार्य को तैयार नही है |” “अच्छा”, हमने कहा कि “यदि हम सभी एक ही तरफ हैं, तो यह मायने नही रखता कि आप उसे क्या कहकर बुलाते है,हमारे साथ काम करो|” इसलिए हमने उप – शीर्षक को हटा दिया और लारेंस स्टोन या यहाँ तक कि सर जॉन इलियट जैसे लोग और बाद में ऑक्सफ़ोर्ड के प्रो.फ़ेसर रेजियस जैसे लोग जो किन्हीं अर्थों में वामपंथी नही थे,उन्होंने भी हमारे साथ कार्य किया| और जिसका परिणाम यह हुआ कि हमें सालों बाद भी वास्तविक तथ्यों में हल्की सी भी कठिनाई नहीं हुई; विचारधारात्मक आधार पर चुनाव और योगदान पर बातचीत में कोई समस्या खड़ी नही हुई|

      हालांकि,इस व्यापक आन्दोलन जिसमें मार्क्सवादी हिस्सा थे, उसमें 1970 के बाद से कठिनाईयां आना शुरू हो गयीं और इसलिए यहाँ पीढ़ीगत समस्याएं हैं| वे लोग जो मेरी पीढ़ी के थे, उन्हें नया इतिहास जो 1970 से आना शुरू हुआ, उससे ज़रा सी भी सहानुभूति नही थी| इसका कारण एक तो इसका सीमांत बिंदु बनाने का भिन्न तरीका है| दूसरा, अन्य चीजों में अधिकतर मार्क्सवादी अगुआ थे, जैसे ‘सामाजिक इतिहास’ परन्तु महत्वपूर्ण इतिहास ‘जनता का इतिहास’(हिस्ट्री फ्राम विलो)[10] – सामान्य लोगों का इतिहास जो न केवल बड़े नीति निर्माताओं पर केन्द्रित कर रहा था, बल्कि किसानों और मजदूरों और आखिर में महिलाओं पर केन्द्रित था, हालांकि 1968 के पहले तक महिलाओं ने इसमें दिलचस्पी लेना शुरू नही किया था| हमने इसे वास्तव में थोड़ा पहले शुरू कर दिया था,परन्तु यह 1968 के बाद ही हुआ कि बाजार ने इन विषयों पर व्याख्यान कराना चाहना शुरू किया | यद्यपि,विरोधाभासी तरह से,लोकप्रिय इतिहास में रूचि रखने वाले सामान्य लोगों ने जब स्वयं के बारे में इतिहास को जाना तब उसकी अधिक दिलचस्पी उसमें आई और सामान्य रूप से वे मार्क्सवादियों की ओर आकर्षित हुए, इसलिए कहा जा सकता है कि वे अधिकतर मार्क्सवादी हो गए क्योंकि वे राजनैतिक रूप से रेडिकल थे, लेकिन उनके मार्क्सवाद से कोई आंतरिक सम्बन्ध नही थे| यह रेडिकल इतिहासकार के लिए पूरी तरह से संभव था, जिसकी दिलचस्पी बिना मार्क्सवादी हुए साधारण जन के इतिहास में थी|

      और वास्तव में, 1970 से ये रेडिकल इतिहासकार वैसे ही हो गए जैसे वे पहले थे,उन्होंने अब गैर मार्क्सवादी तरीकों से निम्न वर्ग के इतिहास पर बल देना शुरू किया: जैसे भारत में सबाल्टर्न इतिहास,या कुछ कुछ इतिहास जर्नल वर्कशॉप,या जर्मनी में तथाकथित ‘दैनंदिन-इतिहास’| ये लोग आलोचक हो चुके हैं,यद्यपि वे स्वयं को वामपंथी कहते हैं| यद्यपि मुझे नही मालूम कि भारत में अब भी सबाल्टर्न लोग वैसा ही कर रहे हैं कि नही,परन्तु अन्य देशों में अब भी ऐसा हो रहा है ; परन्तु वे इतिहास को मार्क्सवादी तरह से व्यवहार नही कर रहे हैं| पुराने मार्क्सवादी स्वयं को नए इतिहास से संतुष्ट नही पाते इसके कई कारणों में से एक कारण यह है क्योंकि वे प्रश्न नहीं करते,उनकी दिलचस्पी अर्थ की व्याख्या में नही है| उनकी दिलचस्पी वास्तव में साधारण जनों में जाकर कार्य करने की है, जहाँ वे पाते हैं कि वहां काम करना ही पर्याप्त है; और इसके बारे में मुझे स्वयं को संशय है|

      यद्यपि इसका मतलब है कि जो लोग इस तरह का इतिहास लिख रहे हैं, उन्होंने 1970 में अपना सुर बदलना शुरू कर दिया था| मैंने इसे अपनी आत्मकथा में रखने का प्रयास किया है| मेरी पीढ़ी के इतिहासकार, भूमध्यसागर पर लिखी ब्राऊडेल की किताब पढ़कर प्रेरित हुए हैं| जो विशाल किताब है जिसमें सब कुछ को एक साथ समझाने की कोशिश की गयी है| इतिहास के नए पेज के लिए महत्वपूर्ण पाठ संभवतया क्लिफोर्ड गीर्त्ज़[11] का ‘वेलिनीज कॉक फाइट’[12] पर लिखा प्रसिद्द आलेख है| हाब्सवाम के बाद की पीढ़ी में जिसमें आप वामपंथी इतिहासकार भी शामिल हैं, वे यदि कहते हैं कि इतिहास में उन्हें वास्तव में क्या आकर्षित करता है, वह यही है इसका दूसरी  तरह का नज़रिया| अब,ये दोनों ही तरीके ज्यादा बुद्धिमत्तापूर्ण और अच्छे हैं; परन्तु ये वैसे ही हैं जैसे वे थे,एक अलग स्वर की तरह| मेरी स्वयं की अनुभूति है कि हम उन अभिप्रायों से दूर हो चुके हैं, अर्थों से भटक गए हैं,जिन्हें लॉरेन्स स्टोन बहुत ही ठीक कहते थे, प्रश्नों में बड़े कारणों को जानना (प्रश्नों में बड़ा ‘क्यों’ कहना)| यही वह है जिसे हमारी पीढ़ी कष्टप्रद पाती है| यही एक कारण है जहां मैं सोचता हूँ कि हम स्वयं को उत्तर आधुनिकतावाद के प्रति आलोचनात्मक या संशयात्मक पाते हैं,ज्यादातर इसलिए क्योंकि इसकी अधिकतर दिलचस्पी व्याख्या या स्पष्ट करने की बजाय इसके अर्थ को जानने में है|

      यदि आप टीलियोलाजिकल अनुमानों को पसंद करते हैं तो यह भी सत्य है कि मार्क्सवाद ने कुछ अनुमानों को ही साझा किया है,जिन्हें निश्चित रूप से इतिहास में त्यागना पड़ेगा,मुख्यतः यह विचार कि किसी न किसी तरह इतिहास नियमित रूप से एक ही दिशा में चलता है – उदाहरण के लिए पारंपरिक समाज से आधुनिक समाज तक,गैर सेकुलर से सेकुलर तक या वैसे मसले जिन्हें हम एक ही लाइन में कहते हैं,सामंतवाद से पूंजीवाद तक और तब समाजवाद | टीलियोलाजी,मैं डरा हुआ हूँ कि इसे छोड़ना पड़ेगा; अनुभव बताते हैं कि इतिहास के परिणामों के बारे में आप अनुमान नही लगा सकते| जो लोग अब भी टीलियोलाजी में यकीन रखते हैं वे आर्थिक नव-उदारवादी (नियो लिबरल) हैं, जो मानते हैं कि वास्तव में आज इतिहास का अंत हो चुका है,जो कि स्पष्ट तौर पर नही कहा जा सकता|

      ब्रिटिश मार्क्सवादी इतिहासकारों के बारे में मैं एक छोटा सा अवलोकन बताकर खत्म करता हूँ| वास्तव में,हालांकि ज्यादातर ‘संस्कृतिवादी’ मार्क्सवादी एडवर्ड थोम्पसन और मेरे बीच कई मतभेद हैं, लेकिन वास्तव में हममें से कोई भी आर्थिक इतिहासकार नही है, जिसकी कि आधारभूत रूप से आर्थिक इतिहास में रूचि हो| अधिकतर मार्क्सवादी उन दिनों हो रही बातचीत जिसे ‘आधार’ और ‘अधिसंरचना’ के बीच बातचीत कहा जाता था, से सहमत होते थे| मैं सोचता हूँ कि एक या दो अपवादों को छोड़ दें तो हममें से कईयों ने ऐतिहासिक विश्लेषण के लिए संस्कृति के महत्व को कम महत्व दिया है - हालांकि सामाजिक मानवशास्त्रियों के बीच के कुछ महत्वपूर्ण मार्क्सवादियों जैसे एरिक वोल्फ और अन्यों ने इसे ठीक किया है| यद्यपि,यदि अंग्रेजी  मार्क्सवाद का उदय ऐतिहासिक या सांस्कृतिक होता तो अधिकतर अंग्रेजी मार्क्सवादी अर्थशास्त्र से आने की बजाय साहित्य से इतिहास में आते| हम आर्थिक इतिहासकार हुए क्योंकि उस समय आर्थिक इतिहास वस्तुतः ऐसा था जिस खूंटी पर इतिहास में मार्क्सवाद में रूचि रखने वाले व्यक्ति अपनी टोपी टांग सकें;परन्तु आधारभूत रूप से हम आर्थिक इतिहास में कोई बड़े योगदानकर्ता नही थे, जैसा योगदान हमने सामाजिक इतिहास किया| कम से कम इंग्लैण्ड में तो हमने कुछ नही किया| शुरू शुरू में संभवतया हमारी दिलचस्पी ज्यादातर साहित्यिक थी| मैं स्वयं भी इतिहास में इसी रास्ते आया| यहाँ शायद,यूरोपीय और ब्रिटिश मार्क्सवाद में अंतर है:हमारे पास दर्शनशास्त्रीय दिलचस्पी नही थी, जैसी कि यूरोप में थी|दर्शन शास्त्र हमारे सेकेंडरी स्कूल के प्रशिक्षण में नही था| मैं नही सोचता कि हमने वैसी ही मजबूत दार्शनिक दिलचस्पी नही ली,  जैसी संभवतया भारतीय परंपरा में भारतीयों ने ली है,उसे और अधिक विकसित किया जा सकता है,ऎसी दिलचस्पी मैंने अमर्त्य सेन जैसे लोगों से बात करने पर देखी|

      एक अंतिम टिप्पणी: मैं विश्वास करता हूँ कि आज व्याख्यात्मक प्रश्नों को कहने का मार्क्सवादी तरीका ज्यादा से ज्यादा केन्द्रित हुआ है| इस बात पर तर्क करने में इतिहासकार बहुत समय खर्च कर चुके हैं कि इतिहास आपसे क्या नही कह सकता है, या कि वह सब कुछ कह सकता है| वास्तविकता में तथ्य यह है कि जीव विज्ञान के नेतृत्व में प्राकृतिक विज्ञान ने, इतिहास को रूपांतरित कर दिया है, और इसके परिणामस्वरूप महत्वपूर्ण प्रश्न कि मार्क्सवाद के केंद्र में कौन है या किसी भी इतिहास के केंद्र में कौन है,एक बार फिर बदलकर यह हो गया है कि मानव स्पीशीज होमोसेपियन का विकास, शुरुआत से लेकर अब तक का कैसे हुआ है| डीएनए विश्लेषण को धन्यवाद देना चाहिए क्योंकि इसके कारण अब हमारे पास पहली बार मानवीय नस्ल की प्रभावी क्रोनोलोजी है,अब हमें जानकारी है कि वह कौन सा चरण है, जहां से यह उत्पन्न हुई,लगभग 2 लाख साल पहले, और किस चरण में इसका बड़ा हिस्सा छूट गया,या कुछ हिस्सा अफ्रीका में छूट गया, लगभग 50-1,00,000 वर्ष पूर्व, आदि आदि ....... हम पूरे विश्व में मानवीय नस्ल के विस्तार के लिए और भी कुछ इस तरह की चीजों के लिए इस क्रोनोलोजी का अनुसरण कर सकते हैं| और भी तीन चीजें इसका अनुसरण करके प्राप्त की जाती हैं| पहला,इससे अब हमारे पास पहली बार ऐसा कुछ है जिसे मार्क्स और अन्य सभी विश्व इतिहास,वैश्विक इतिहास के लिए एक उचित साँचा कहते हैं| कुछ ऐसा है जो हमें आवश्यक रूप से इतिहास के अनुभागीय चरित्र,क्षेत्रीय इतिहास,राष्ट्रीय इतिहास को तोड़ने की (जानने की शुरुआत करने की) अनुमति देगा| हमें अब इसके साथ बने बनाए ढाँचे को तोड़ देना चाहिए और हमारे इतिहास को सामान्य वैश्विक आन्दोलन के एक हिस्से की तरह देखना शुरू कर देना चाहिए|

      दूसरा,नया परिप्रेक्ष्य यह स्पष्ट करता है कि संक्षिप्त मानव इतिहास कितना आश्चर्यजनक न केवल अन्तरिक्ष विज्ञान के मानकों से, बल्कि जीवाश्मिकी मानकों से भी है; और इससे भी अधिक इसकी महत्वपूर्ण गति से भी | शुरुआती चरण को छोड़ दें तो अधिकतर समय यह सापेक्षिक रूप से धीमा रहा है,जिसे महान अंग्रेजी मार्क्सवादी वी.गोर्डन चिल्डे[13] नियोलिथिक क्रांति कहते हैं; इसके बाद चीजें स्थायी हो गयीं| कह सकते हैं ऐसा कुछ वक्त के लिए रहा,सोलहवीं सदी ने इसे लगातार उत्तरोत्तर गति दी| पिछली सदी के बाद वास्तव में आखिर की आधी सदी से ज्यादा में यह तेजी से होता हुआ उस दर पर पहुँच गया जहाँ लम्बी अवधि में होने वाले सामाजिक परिवर्तन राजनैतिक परिवर्तनों की दर से परिचालित हुए| कई सदियों के लम्बे समय के बाद, लम्बी अवधि की विकास की प्रवृत्ति अचानक संचार क्रान्ति के रूप में घटित हुई| इंटरनेट लगभग दस साल पुराना है और अब यह इतनी गति से संचालित करता है जिसे हम सामान्यतया कैबिनेट में परिवर्तन की तरह सोचते है| मैं सोचता हूँ कि यह अब सम्पूर्ण प्राविधि में परिवर्तन के लिए कहता है| उदाहरण के लिए, यह उस फैशन को भी निकाल देता है जो एक समय सामाजिक-जीवविज्ञान,वंशानुगत,जीन वंशानुगातिकी को समझाने के लिए अत्यधिक लोकप्रिय था| इतिहास सामान्यतः इसे बताने के लिए कि ऐसा हुआ है,बहुत लम्बा नही है| अन्य शब्दों में, हमें इतिहास के लिए,विश्लेषणात्मक इतिहास के विशिष्ट साधनों की जरुरत है| एतिहासिक विकास को सामाजिक जीवविज्ञान से पर्याप्त रूप से समावेशित नही किया जा सकता है|

      विरोधाभासी ढंग से,ऐतिहासिक विकास उपार्जित भिन्नताओं पर अवस्थित होता है- इसे आप कह सकते हैं कि यह लैमार्क का डार्विन से मानव इतिहास के माध्यम से लिया जाने वाला प्रतिशोध है! उपार्जित भिन्नताएं सांस्कृतिक रूप से एक से दूसरी पीढ़ी में सीखने और स्मृति के माध्यम से जातीं हैं, जीन्स के द्वारा नही,और यही महत्वपूर्ण चीज है जो इतिहास के ऐतिहासिक विकास के लिए विशिष्ट विषय की सामग्री देती है| और यहीं पर मुझे लगता है कि यह पुरानी मार्क्सवादी तर्ज की पद्धति की ओर लौटना है,वही पुरानी पद्धति जो बहुत समय तक पूर्व इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं की रही है,इतिहास के बारे उत्पादन के साधनों के अर्थों में प्राथमिकता से सोचने की| आप चाहे उसे जो भी कहें, यह तकनीकीपूर्ण या सामाजिक नवाचारों के लिए आवश्यक है, जो सब कुछ रूपांतरित करते हैं| उदाहरण के लिए,कृषि के आविष्कार से विश्व के विभिन्न हिस्सों में भिन्न तरीकों से चीजें घटित हुईं | सभी प्रकार से इसने समाजों में रूपांतरण किया|

      कई उत्तर-आधुनिकतावादी समझाते हैं कि इतिहास में कुछ भी कहने के लिए नही है, इतिहास तो निर्मित है| अन्य लोग कहते हैं कि इतिहास आख्यान हैं, जो सही हों या नही इससे मतलब नही है,लेकिन विभिन्न तरह के आख्यानो में समान एक जैसे मूल्य होते है| परन्तु मानव विकास पर नया परिप्रेक्ष्य हमें एक विषय देता है, जो उतना ही वास्तविक बचा है जितना उत्तर आधुनिकतावाद के पहले था, और जिसके लिए यह समय पुराने तरीकों की ओर लौटने का समय था,और इसी बिंदु पर मार्क्सवादी तरीका कुछ अर्थों में पुराने तरीकों की बजाय अधिक उपयोगी होगा – क्योंकि सत्तर के मध्य के दशक से वैकल्पिक लम्बी अवधि की विकासीय पद्धतियां ख़त्म हो चुकी है| सामाजिक मानव शास्त्र ने भी वृहद प्रेरणा दी है,मैं डरा कमजोर हूँ, क्योंकि दुर्भाग्यवश सामाजिक मानवशास्त्र को उत्तरआधुनिकतावाद ने अन्य क्षेत्रों की बजाय अधिक नष्ट किया है| वास्तव में,मार्क्सवादियों में कुछ ऐसे हैं जो इस पर विश्वास करते हैं कि वहां एक इतिहास है; और मानव स्पीशीज के विकासीय इतिहास को ऐतिहासिक तरीके से देखना पड़ेगान कि अन्य तरीके से| मुझे आशा है कि दूसरे लोग इसको खोजेंगे कि मार्क्सवादी आज भी वैसे ही उपयोगी हैं जैसे कि वे पहले थे|

हरि वासुदेवन: प्रो..हाब्सवाम, पिछले कुछ मिनटों में आपके द्वारा व्यक्त दृष्टि ऎसी है, जो बताती है कि हमें हमारे कर्तव्यों के प्रति क्या करना चाहिए,वास्तव में यह दृष्टि बहुत ही विशाल है,मैं इस दृष्टि के बारे में सामान्य प्रश्नों को रखने को लेकर कुछ चिंतित महसूस करता हूँ| परन्तु बतौर मार्क्सवादी आप इस बात से सहमत होंगे कि कभी कभी संभावनाएं,अवसर और दृष्टियाँ जरुर महान हो सकतीं हैं,उसकी ओर पहुँचने का रास्ता भी कठिन हो सकता है,और हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम इन विनम्र श्रेणियों के साथ कार्य करें|

      मेरा पहला प्रश्न, जो मैं आपसे कहना चाहता हूँ, वह इसी से सम्बद्ध है,वह है ‘समुदाय’ श्रेणी की महत्ता के बारे में| ‘अतिरेकों के युग’ में आपने बीसवीं सदी के अंत के बारे में कहा है कि यह अनिश्चितताओं और शत्रुता का समय है; परन्तु आपने यह भी समझाया है, कि यह समय महान निर्माणों का समय भी था| इसलिए कोई इस अर्थ में कह सकता है कि सोवियत संघ का पतन और इसके अंततः विघटन ने एक तरह से अनिश्चितताओं की एक श्रृंखला को खड़ा किया है जो कि हमारे जीवन के लिए सृजनात्मक नही हैं|  परन्तु आप स्वयं मानते हैं कि इसके भीतर से ही ट्रांस नेशनल या अंतर्राष्ट्रीय गतिविधियों की एक व्यवस्था तीव्र हो चुकी है| और इन परिस्थितियों में हम वास्तव में अपने चारों ओर के विश्व में विभिन्न समुदायों को बनते हुए देख सकते हैं|

      अब,क्या परिवर्तनों के साथ सोचना इतिहासकार के लिए नही है,जैसे कि वह अस्थायी श्रेणी ‘समुदाय’ साथ ही बड़ी समस्याओं की तरह दोनों अर्थों में सोचते हैं?इतिहासकार अस्थायी श्रेणियों जैसे ‘समुदाय’ और बड़ी समस्याओं के अर्थों में जैसे स्वयं की सोच को बदलता है, क्या ऐसा करना उसके लिए नही है (आप उसे एक ही मुद्रा में रहने के लिए कह रहे हैं)? उसे हमेशा बदलने वाले समुदायों और अन्य निर्माणों जो अंततः उसे सीमित करने वाले हैं, और उसे निदेशित करने वाले हैं, के साथ ही उन्हें सोचना पड़ेगा| आपके मामले में मैं कहूंगा कि आपकी वैश्विक इतिहास और विश्व इतिहास में वृहद दिलचस्पी के बावजूद, और अपनी कार्य पद्धतियों में राष्ट्रीय निष्पक्षता बरतने के बावजूद, आप हमेशा ही कई मायनों में यूरोपियन इतिहासकार रहे हैं| उन्नीसवीं और बीसवीं सदी का ऐसा यूरोपियन इतिहासकार जो जीवनभर तात्कालिक आधुनिक अनुभवों से परे देखने में सक्षम रहा|   
एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर जो यूरोप के साथ कार्य कर रहा है,जो समुदायों में तल्लीन है,यह हमेशा मुझे दंग करता है, कि बतौर मार्क्सवादी आपको समुदाय पहले है, और जो कुछ भी क्षणिक है वह सर्वश्रेष्ट है; कुछ वह जो निर्मित करता है या अनिर्मित है,जो अलग तरह से या तो अपने चारों ओर निर्मित परम्पराओं से या सामाजिक प्रक्रियाएं जो उन्हें बनाती हैं, से सृजित हुआ है वही क्षणिक है, और सर्वश्रेष्ट है| इसके परिणामस्वरूप क्या आपका झुकाव समुदाय के महत्त्व को उसकी विशेषज्ञता को और उसकी सत्ता को कम आंकने का नही है?

दूसरी समस्या यह है: यह एक तथ्य है कि द्वितीय विश्वयुद्ध से यूरोप उत्तरोत्तर आत्मचेतस और आत्मविज्ञ हो चुका है,इसके साथ जुड़ी कई परम्पराएं बेहतर परिभाषित और बेहतर संघटित हुई हैं|
यह एक विचार है जिससे आप हमेशा इसमें शामिल होने के खिलाफ रहे हैं| मैं एक स्तर पर देख सकता हूँ कि ऐसा संभवतया उन समुदायों की शक्ति के कारण है जिसने शायद यूरोप को बनाया है| यह तथ्य है कि आपके उन्नीसवीं और शुरुआती बीसवीं सदी के अनुभव आपको विभिन्न अन्वेषणों की ओर संकेत करते हैं जो कि छोटे राष्ट्रीय समुदायों की शक्ति को स्थायी करते हैं, चाहे ये समुदाय फ्रेंच,इटालियन या अंग्रेजी हों|

परन्तु मैं सोचता हूँ कि 1990 की सर्वाधिक दिलचस्प घटना जो 2000 में अधिक हुईं,विशेषकर पिछले साल मध्य पूर्व में हुईं घटनाओं के बाद यह बहुत स्पष्ट हो चुका है कि यूरोपीय महाद्वीप को केंद्र में रखकर गतिविधियों को सोचा जा सकता है,ऐसा कार्य क्षेत्र जो गतिशीलता के योग्य है,जिसकी दिशा शायद अंतरवर्ती नही है| जब आप यूरोपियन समुदाय की आर्थिक गतिविधियों के महत्व को संकेत करते हैं, तो आपका इससे तात्पर्य वहां किसी जगह से है| परन्तु जो अधिक मात्रा में दिखता है वह है कि यह यूरोप,यूरोप की तरह से बाहर देखना शुरू कर रहा है, बजाय फ्रांस,जर्मनी या ब्रिटेन की तरह| कम से कम एक निश्चित दूरी से वह ऐसा प्रकट होता दिखेगा,और आप इसका विशेष कारण नही बताते|

मैं कहूँगा कि एक निश्चित दूरी से यह स्वीकार करना कि निश्चित रूप से कुछ हो रहा है हमारे लिए यह न केवल महत्वपूर्ण है, बल्कि यह प्रश्न करना भी महत्वपूर्ण है कि क्या हो रहा है| यह मानक राज्य या यूनाइटेड स्टेट के निर्माण की तरह नही है| यह अत्यधिक जटिल निर्माण है जो वास्तव में हम आस-पड़ोस के निर्माण में,राष्ट्रों के महाबन्ध में, शासन व्यवस्था के निर्माण में होता हुआ देखते हैं,जिसका अर्थ है उन समस्याओं का प्रबंधन करना| वास्तव में यह एक प्रगतिशील घटना है, जिसे हम हमारे सामने सुलझता हुआ देख रहे हैं|

इस सम्बन्ध में मैं आपसे विशिष्ट प्रश्नों को रखना चाहता हूँ| क्या आज विश्व में यूरोप एक महत्वपूर्ण चीज है? क्या आप वास्तव में यूरोप को न केवल भौतिक अर्थ में,बल्कि व्यापक सांस्कृतिक और अन्य अर्थों में सोच पाते हैं,जिसने यूरोप की उन सभी विश्वों में साम्राज्यवादी या अन्य जैसी तस्वीर बनायी थी, जिससे यूरोप बहुधा अतीत से संसक्त था?

एरिक हाब्सवाम : आप बिलकुल ठीक हैं| मैं सामान्यतया यूरोपीय एकता के बारे में थोड़ा संशयी रहा हूँ| ऐसा इसलिए, क्योंकि यद्यपि यूरोप ने एतिहासिक रूप से वृहद भूमिका अदा की है, विशेषकर आखिरी पांच सौ वर्षों में,ऐसा बतौर उप महाद्वीप नही हुआ है – थोड़ा बहुत ऐसा हुआ है अन्य नहीं| यूरोप साम्राज्यवाद और समुद्र पार साम्राज्यों का केंद्र था;परन्तु यूरोप के कुछ निश्चित हिस्से ऐसे थे, जो इन उद्यमों में शामिल नही थे| यूरोप अस्तित्व में जब तक था, वैसा ही था जैसा यूरोप फिर से 16वीं सदी से 20वीं सदी तक रहा, मोटे तौर पर कहा जाए तो विश्व में राजनैतिक और सेना शक्ति के मुख्य केंद्र के रूप में| परन्तु उसकी महान सत्ता व्यवस्था थी जिसने कभी कार्य किया था|  उदाहरण के लिए,बल्कि इसने 19वीं सदी में ज्यादा बेहतर कार्य किया,1914 से 1947 तक के तीस सालों को छोड़ दें, तो सचमुच इसने बीसवीं सदी में भी बेहतर कार्य किया| परन्तु यूनियन का विचार,यूरोपियन यूनियन बीसवीं सदी का विकास है| पहला तो,प्रथम विश्व युद्ध के बाद जब यूरोप ने दो बाहरी निकायों अमरीका और रूस के खिलाफ स्वयं को स्थापित करने का प्रयास किया,हमारे पास एकीकृत यूरोप का यह पहला प्रस्ताव है| द्वितीय विश्व युद्ध के बाद,इसने पश्चिमी-यूरोपीय राज्यों के समूह को स्थापित करने का प्रयास किया – एक ऐसा ‘यूरोप’ जो रूस के खिलाफ पहला उदाहरण था| 
     
      यह वास्तव में महाद्वीप यूरोप नही था बल्कि यह यूरोप का एक हिस्सा था और ऐसा बचा रहा| यूरोपीय विचार के प्रचारकों के दिमाग की मूल योजना संघ राज्य या कम से कम राज्यों के संघ की ओर कार्य करने की थी| कई कारणों से ऐसा नही हुआ है और न ही ऐसा होने वाला है, एक बड़े अपवाद के कारण | इसके कारण एकीकृत यूरोप के दो तत्व विकसित हो चुके हैं: इन सबमें पहला तत्व है कि यह एक आर्थिक इकाई है; और संयोगवश यूरोप उन दिनों से एक आर्थिक इकाई है, जब से यूरोप आवश्यक रूप से सोवियत विरोधी था,रूस के विरोधी भी सशक्त रूप से यूनाइटेड स्टेट विरोधी की तरह निर्दिष्ट थे |

      एक अन्य तत्व जिसे अक्सर मान्यता नही दी जाती वह है, कि यूरोप ने एक उच्चतम न्यायालय विकसित किया है,हालांकि यूरोपियन संविधान अब तक नही है| और यूरोपियन उच्चतम न्यायालय, जिसके निर्णय स्थानीय निर्णयों पर उत्कृष्ट रूप से स्वीकार किये जाते है,इसने कुछ मात्रा में वैध एकीकरण का निर्माण किया है, न केवल मानव अधिकारों के मामले में, बल्कि अन्य मामलों में भी जो यथार्थ में हैं और महत्वपूर्ण हैं| इन्हीं दो मामलों के अलावा यूरोप का अस्तित्व नही है| इसकी कोई भी प्रभावी राजनैतिक इकाई नही है,अंतर्राष्ट्रीय आवाज़ नही है और इसकी कोई भी प्रभावी सेना की इकाई नही है| इसकी एक प्रभावी आर्थिक इकाई इसलिए है क्योंकि यह एक बड़ी अर्थव्यवस्था को व्यक्त करता है, यह विश्व के तीन बड़े आर्थिक खण्डों में से एक है, जिसके आकार की तुलना यूनाइटेड स्टेट से की जा सकती है| एक ही मामले में यूनाइटेड स्टेट, यूरोप को वास्तव में गंभीरता से लेता है, वह है औद्योगिक बातचीत में| इस मामले में यूनाइटेड स्टेट बराबरी से यूरोप से बातचीत करता है, जबकि अन्य मामलों में वह बराबरी से बात नही करता|

      क्या यह आगे विकसित होने वाला है? यदि कोई आधार जिस पर यूरोपीय चेतना इस तरह से कुछ मामलों में विकसित होती है, तो वह है इसका अमरीका विरोधी आधार| परन्तु मुझे विश्वास नही है कि सांस्थानिक यूरोप महत्वपूर्ण होने जा रहा है, विशेषकर यह अपनी वास्तविक एकता को खो रहा है,जो थोड़ी सी एकता इसके जन्म में थी| इसका मूल विचार,यूरोपीय संस्कृति और यूरोपीय संस्थानों के बारे में वृहद पाखण्ड से घिरा हुआ था; परन्तु वास्तव में यूरोप का विस्तार,न केवल वह बड़ा हिस्सा जिसे पूर्वी यूरोप में सोवियत साम्राज्य द्वारा उपयोग में लाया गया तक था, बल्कि सोवियत संघ के स्वयं के वास्तविक हिस्से तक किये गए इसके विस्तार ने यूरोप के विचार का पतन किया| उदाहरण के लिए तुर्की के सामने आज यूरोपियन संघ में शामिल होने के लिए प्रस्ताव को रखिये| अब आप किसी भी अर्थ में चाहे ऐतिहासिक रूप से या अन्य तरह अर्थ में,यह नही कह सकते कि तुर्की यूरोप का हिस्सा है| हमारे पास यहाँ अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का आंकलन है,परन्तु यूरोपीय एकता का पारंपरिक,सांस्कृतिक या वास्तव में आर्थिक आधार का आंकलन नही है| और यही विचार यूरोप के विकसित हिस्सों को साथ लाने का आवश्यक विचार था जिसने सामूहिक रूप वैश्विक महत्त्व के ऐतिहासिक गुट का निर्माण किया| यही कारण मेरे लिए यूरोप के विकास के बारे में थोड़ा संशयी होने का विशिष्ट कारण था |

      मैं विश्वास नही करता कि यूरोपीय संविधान भी स्वयं,भले ही यह स्वीकार्य हो या नही,वह बहुत कुछ परिवर्तन करने वाला है| यूरोपीय संघ वही बचेगा जो कि यह मूल में था,मुख्य रूप से जिसे डी गाउले “यूरोप ऑफ़ फादरलैंड्स”,राज्यों का गठबंधन कहते हैं| अब यूरोप ऑफ़ स्टेट वैसा नही रह गया है, क्योंकि अब एक्स-सोवियत राज्य यूरोप को मूल केंद्र में देखने के बजाय इसे यूनाइटेड स्टेट के उपभोक्ता के तौर पर देखते हैं| यूरोप का आर्थिक भविष्य भी बहुत साफ नही है, भले ही अभी भी इसके पास बहुत धन है| कुछ तरीकों में यदि आप आज विश्व की आर्थिकी को देखें तो आपको यूनाइटेड स्टेट और उभरते पूर्वी एशियाई देशों के बीच अभूतपूर्व सहजीवी व्यवस्था दिखती है| दोनों को ही कुछ मामलों में एक दूसरे की जरुरत है,यद्यपि दोनों में पर्याप्त प्रतिद्वंदिता भी है; परन्तु यूरोप किसी भी तरह से अब भी बचा हुआ है|

       बीसवीं सदी के अंत और इक्कीसवीं सदी के आरम्भ को सामान्य स्थितियों में साफ़ तौर पर व्यवस्थित होने की बजाय, अव्यवस्थित होने से या अनिश्चितताओं से विशेषीकृत किया जा सकता है| मैं सोचता हूँ कि चूँकि हम यहाँ भारत में हैं, और लोग जो भारत और एशिया में रहते हैं वे आशावादी हैं;कुछ तो जनसंख्या के सामान्य आयु वितरण के कारण;कुछ इसलिए क्योंकि यह सच है कि गुरुत्व का केंद्र - न केवल विश्व अर्थव्यवस्था का केंद्र बल्कि कुछ मामलों में अन्य मानवीय गतिविधियों का केंद्र – का पूर्व की ओर जाना रहा है| इस मामले में यूरोपियनों के लिए आसानी से निराशावादी दृष्टिकोण हो सकता है बजाय भारतीयों और चायनीज या वियतनामियों के| इस समय अधिक पसंदीदा और महत्वपूर्ण इक्कीसवीं सदी के लिए वास्तव में भविष्य की ओर सोचना चाहिए फिर चाहे जो भी हो, फिर भी मुझे इसके व्यवस्था क्रम में इसलिए संदेह है, क्योंकि जो भी सामाजिक परिवर्तनों हो रहे है उनकी गति असाधारण दिखती है|

      हम इस गति के तकनीकी परिणामों का निर्णय कर सकते हैं;परन्तु मानवीय परिणामों के बारे में मुझे लगता है कि अधिक गंभीर हैं| कुछ मामलों में मिलेनिया के लिए वास्तविक समुदायों, (राज्य नहीं) और परिवार समुदायों के मानवीय संबंधों के बीच कुछ निश्चित प्रकार के सम्बन्ध परिचालित होते हैं; लेकिन ये अदृश्य हो रहे हैं और वे किसी भी समकक्ष निर्देशों से प्रतिस्थापित नही हो रहे हैं,वस्तुतः वे वैसे ही हैं| अतीत में आपको इस तरह के मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं होती थी, क्योंकि अतीत कुछ मामलों में मानवीय व्यवहारों का मार्गदर्शन करता था; कैसे पिता पुत्र से,माँ अपनी पुत्रियों से, भाई एक दूसरे से,पड़ोसी आपस में व्यवहार करते हैं| वह गति जिस पर मानवीय समाजों की इस पारंपरिक संरचना को पश्चिम में विघटित होते देखा जा सकता है, वह असाधारण है; और यह गति मानवीय संबंधों की बनावट को बहुत ही बड़े तौर पर अनिश्चित करती है| यह चिंता का कारण है और कुछ उदाहरणों में चेतावनी का भी कारण है|

      अब मैं कुछ बातें कठोरता से रखता हूँ| सामाजिक रूप से कहा जाए तो पश्चिम में बीसवीं सदी का बड़ा नव परिवर्तन महिलाओं की मुक्ति है| महिलाओं ने सार्वजनिक जीवन में अपनी एक जगह बनायी है,ऐसा पहले कभी स्वप्न में भी नही हुआ था| कैथोलिक इटली जैसे देश में इस मुक्ति का एक परिणाम यह हुआ कि उन्होंने बच्चे पैदा करना बंद कर दिया,उनके पास अब बहुत   बच्चे नहीं हैं| कुछ मामलों में लोगों ने जन्म पर नियंत्रण का स्वागत किया क्योंकि उनका कहना है, कि जिस दर से मानवीय नस्ल का फैलाव जन सांखिकीय रूप से जैसा हो रहा था, उस  पर नियंत्रण इसी तरह के स्वैच्छिक या जन्म नियंत्रण के अन्य तरीकों के द्वारा ही किया जा सकता है| यह उस देश के लिए बहुत ही असाधारण स्थिति है, जो सभी मामलों में बहुत ही अधिक पारंपरिक रहा हो – और कई मामलों में पारिवारिक संरचना में आज भी पारंपरिक है – वहां पर एक परिणाम यह होना कि महिलायें बच्चे पैदा नही करना चाहतीं| यह कोई स्थायी प्रभाव होगा,हम नहीं जानते| हम अब इंग्लैण्ड में पाते हैं कि महिलाएं बच्चे तो चाहतीं हैं परन्तु कुछ समय बाद| फिर भी आपके पास समस्याएं हैं: माँ की औसत आयु बहुत ज्यादा है;माताओं के बच्चों से सम्बन्ध बदल चुके हैं|

      मैं इस विकास पर कोई निर्णय नही दे रहा हूँ| मैं यहाँ सामान्य रूप से यह कह रहा हूँ कि यहाँ हम इस गति का अनुकरण करते हुए बदल चुके है,यहाँ समाज रूपांतरित हो चुके हैं-जिसके परिणाम हालांकि प्रत्याशित नही किये जा सकते, परन्तु फिर भी बहुत हद तक असाधारण रूप से नकारात्मक भी हो सकते हैं,कम से कम कुछ समय के लिए| हममें से उनके लिए जिनकी उम्र बहुत अधिक है, वे उन दिनों को याद कर सकते हैं जब ऐसा था,कि नियमों का बहुत अधिक स्वीकार्य था,यह बहुत ही चिंता का विषय रहा है| मुझे बहुत ही आशा है कि अगली दो या तीन पीढ़ियों के लोग, एक साथ रहने वाले जीवन के तरीकों को खोजेगी – न केवल विभिन्न लोगों के बीच रहने के तरीकों को, बल्कि विभिन्न राज्यों के लोगों के बीच रहने के – एक साथ सामान्य जीवन जीने के तरीकों को जिनमें पारंपरिक तरीके से लोग रहने के लिए अभ्यस्त हो चुके हों|
सहायक प्रो.फ़ेसर,डी-11,महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा (सेल: 09422905719)




[1] फर्नांड ब्राउडेल्स फ्रेंच इतिहासकार थे और एनल्स स्कूल के लीडर थे| उन्होंने  तीन परियोजनाओं पर काम किया,मेडीटेरियन,सभ्यता और पूंजीवाद,फ्रांस की अस्मिता|उनकी मुख्य प्रतिष्ठा एनल्स स्कूल बनाने और उसकी  सफलता के कारण थी जो उस समय फ्रांस और 1950 के बाद के ज्यादातर विश्व में एतिहासिक शोध का इंजन रहा|

[2] जीनोफोबिया- यह एक अतार्किक तरह का भय है,जिसे विदेशी द्वेष या अद्भुत भय की तरह देखा जाता है|

[3] एल्विस प्रेस्ले एक अमरीकन गायक संगीतकार और अभिनेता थे,बीसवीं सदी के महत्वपूर्ण ‘सांस्कृतिक आइकन’ थे| उन्हें अक्सर “किंग ऑफ़ रॉक एन रोल”  या “द किंग” कहा जाता था|

[4] हिस्ट्री फ्राम विलो ,जनता का इतिहास,या लोक इतिहास, एक तरह का एतिहासिक आख्यान है जो एतिहासिक घटनाओं को राजनैतिक या अन्य नेताओं की बजाय साधारण आदमी के परिप्रेक्ष्य से गणना करने का प्रयास करता है|

[5] आइकोनोग्राफी कला इतिहास की एक शाखा है जो चित्रों की विषय वस्तु की पहचान,उनकी व्याख्या और उनके अर्थ  स्पष्टीकरण का अध्ययन करती है|.
[6] एनाक्रोनिज्म एक कुछ विन्यासों में कालानुक्रमिक असंगति है विशेषकर समय के विभिन्न कालखंडों में व्यक्तियों,घटनाओं,वस्तुओं,या रीति रिवाजों से एक तरह की निकटता है|अक्सर समय के दौरान जो चीजें खो जातीं हैं वह  लक्ष्य हैं परन्तु वह मौखिक अभिव्यक्ति,कोई तकनीक,कोई दार्शनिक विचार,कोई संगीत की शैली,कोई पदार्थ,कोई रिवाज या अन्य भी कुछ हो सकता है जो उस विशिष्ट समय से संयुक्त हो यदि वह उस समय से संयुक्त नही है तो उसकी वजह से इसे उस समय के बाहर रखना सही नही होता समय के लिहाज से|

[7] टीलियोलाजी, साध्यवाद (Teleology) एक दार्शनिक लेखा जोखा है जो प्रकृति में उपस्थित अंतिम कारणों को जानने का विचार रखता है, यह मानता है प्रकृति की अनुवांशिक प्रवृत्ति निश्चित लक्ष्यों की ओर होती है| साध्यवाद (Teleology) के अनुसार, प्रत्येक कार्य या रचना में कोई उद्देश्य, प्रयोजन या अंतिम कारण निहित रहता है जो उसके संपादनार्थ प्रेरणा प्रदान किया करता है। इसके विपरीत यंत्रवाद का सिद्धांत है। इसके अनुसार संसार की प्रत्येक घटना कार्य-कारण-सिद्धांत से घटती है। हर कार्य के पूर्व एक कारण होता है। वह कारण ही कार्य के होने का उत्तरदायी है। इसमें प्रयोजन के लिए कोई स्थान नहीं है। संसार के जड़ पदार्थ ही नहीं चेतन प्राणी भी, यंत्रवाद के अनुसार, कार्य-कारण-नियम से ही हर व्यवहार करते हैं। साध्यवाद के सिद्धांतानुसार संसार में सर्वत्र एक सप्रयोजन व्यवस्था है। विश्व की प्रत्येक घटना किसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए संपादित होती है। चेतन प्राणी तो हर कार्य किसी उद्देश्य से करता ही है, जड़ पदार्थों का संघटन और विघटन भी सप्रयोजन होता है। यंत्रवादी यदि भूत के माध्यम से वर्तमान और भविष्य की व्याख्या करते हैं, तो साध्यवादी भविष्य के माध्यम से भूत और वर्तमान की व्याख्या करते हैं। यंत्रवाद के अनुसार कोई न कोई कारण हर कार्य को ढकेलकर आगे बढ़ा रहा है। साध्यवाद के अनुसार कोई न कोई प्रयोजन हर कार्य को खींचकर आगे बढ़ा रहा है।

[8] क्रिटिकल लीगल थ्योरी 1970 और 80 में कानूनी विचार का एक आन्दोलन था,जो प्रच्छन्न हितों से रहित मानवीय व्यक्तित्वों की दृष्टि पर आधारित और वर्ग प्रभावी समाज को बनाने के लिए प्रतिबद्ध था और इसी दृष्टि को वर्तमान वैध संस्थानों के पीछे प्रभावी मानता था|

[9] एनाल्स एतिहासिक अभिव्यक्ति का संक्षिप्त रूप है, जो घटनाओं का क्रमानुसार,वर्ष दर वर्ष रिकार्ड रखता है| 1978 में इमानुएल वालरशटाइन ने वर्मिन्घम स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यूयार्क में ब्राऊडेल्स के आने पर फर्नांड ब्राऊडेल्स सेंटर की स्थापना की| इसी अवसर पर इस महान इतिहासकार और उनकी पत्रिका “एनाल्स:इकानोमीज सोसायटीज,सिविलाइजेशन” के प्रभाव पर एक गोष्ठी का आयोजन हुआ|इस पत्रिका के संस्थापक मार्क ब्लोख और लूसिएं फेब्र थे|इसी के नाम पर एक एनल्स स्कूल, इतिहासकारों का एक समूह था जो बीसवीं सदी में सामाजिक इतिहास के दीर्घ काल पर बल देने के लिए फ्रेंच इतिहासकारों द्वारा विकसित किया गया| इसके इतिहासकारों ने सामाजिक इतिहास को जानने के लिए मुख्यतः सामाजिक वैज्ञानिक प्रविधियों के उपयोग पर बल दिया|

[10] हिस्ट्री फ्राम विलो,जनता का इतिहास,या लोक इतिहास एक तरह का एतिहासिक आख्यान है जो एतिहासिक घटनाओं को राजनैतिक या अन्य नेताओं की बजाय साधारण आदमी के परिप्रेक्ष्य से गणना करने का प्रयास करता है|

[11] क्लिफोर्ड गीर्त्ज़ (अगस्त23, 1926 – अक्टूबर 30, 2006) अमरीकन मानवशास्त्री थे जिन्हें प्रतीकात्मक मानवशास्त्र के व्यवहार और उस पर अधिक प्रभाव डालने के लिए याद किया जाता है| वे यूनाइटेड स्टेट में तीन दशकों तक अकेले सर्वाधिक प्रभावी सांस्कृतिक मानव शास्त्री रहे|

[12] वेलिनीज कॉक फाइट यह एक निबंध है जो मानवशास्त्री क्लिफोर्ड गीर्त्ज़ ने अपनी किताब “इंटरप्रिटेशन ऑफ़ कल्चर” में लिखा था,इसमें उन्होंने बैलिनीज संस्कृति में कॉक फाइट के अर्थ को समझाया गया है| सामान्यतया ‘मुर्गों की लड़ाई’ इंडोनेशिया में गैर कानूनी है,जब गीर्त्ज़ 1950 में वहां कार्यक्षेत्र पर गए थे, तब पहली बार उन्होंने अपनी पत्नी के साथ मुर्गों की लड़ाई देखी,और जब वे मुर्गों की लड़ाई देख रहे थे तब पुलिस ने आकर उसे रोक दिया और पुलिस से छुपने के लिए स्थानीय समूह द्वारा झोपड़ी में छुपने की अनुमति देने के अनुभव ने  गीर्त्ज़ का स्वयं और गाँववालों  के बीच (शोधार्थी और जनता के बीच) के तनाव को ख़त्म कर दिया और उन्होंने फिर सभी साक्षात्कार और अवलोकन में मदद मिली जिसके फलस्वरूप उन्होंने “इंटरप्रिटेशन ऑफ़ कल्चर” लिखने में मदद की| इस निबंध में उन्होंने वहां के गाँव में मुर्गों की लड़ाई से सत्ता संबंधों के परिवर्तन की बात की व्याख्या की है

[13] वी.गोर्डन चिल्डे (14 अप्रेल 1892 – 19 अक्टूबर 1957), आस्ट्रेलियन पुरातत्ववेत्ता और भाषाविज्ञानी,जो यूरोपीय पूर्व इतिहास के विशेषज्ञ थे| वे मानव समाज में क्रांतिकारी तकनीकी और आर्थिक विकास के लिए प्रसिद्द हैं,जैसे नियोलिथिक क्रान्ति और शहरी क्रान्ति,इसमें वे सामाजिक विकास पर मार्क्सवादी नजरिये से प्रभावित थे|