Wednesday, November 9, 2011

सचिन को अब संन्यास ले लेना चाहिए



सचिन जैसे महान बल्लेबाज़ जिन्हें लोग क्रिकेट का तथाकथित भगवान भी कहते हैं उन्हें अब अपने सौवें शतक के लिए जनता की दुआओं की जरुरत पड़ने लगी है ,ऐसे मैं निश्चित रूप से ये कहा जा सकता है कि सचिन मानसिक रूप से कमजोर हैं,हमने पहले भी देखा है कि सचिन नब्बे के आंकड़े पे आकर क्या हो जाते हैं ऐसे में क्यों न सचिन को संन्यास ले लेना चाहिए ?क्योंकि महानता का अंत इस तरह नही होना चाहिए जैसा कि होता दिख रहा है.सौवें शतक के लिए अभी आस्ट्रेलिया की पिचों का इंतज़ार करना होगा,क्योंकि सचिन का रिकार्ड ये भी कहता है कमजोर टीमों के खिलाफ सचिन को शतक करने में मजा नही आता.इसलिए इन्तजारे लंबा है दोस्तों.........कहीं ऐसा न हो कि इंतज़ार इंतज़ार ही रह जाए..

Monday, November 7, 2011

ये हाकी क्या है?

जब गाँधी जी ने पूछा- हॉकी क्या है






महात्मा गाँधी उन दिनों इरविन से बातचीत में व्यस्त थे



1932 के ओलंपिक में हिस्सा लेने के लिए भारतीय टीम के पास पैसे नहीं थे. लोगों ने सलाह दी कि अगर गाँधी जी जनता से अपील करें तो पैसों का इंतज़ाम हो जाएगा. लेकिन गाँधी जी उन दिनों शिमला में थे. लॉर्ड इरविन से उनकी बातचीत चल रही थी. एक पत्रकार चार्ल्स न्यूहम को गाँधी जी से बातचीत करने का ज़िम्मा दिया गया था. जब न्यूहम ने गाँधी जी को इस स्थिति के बारे में अवगत कराया तो उनका पहला सवाल था- यह हॉकी क्या है? बस मिशन नाकाम हो गया. शायद उन दिनों गाँधी जी के दिमाग़ में देश की आज़ादी के लिए संघर्ष के सिवा कुछ भी नहीं था.



(स्रोत- मेजर ध्यानचंद की जीवनी द गोल से साभार)



Friday, November 4, 2011

गांधी, गांधी थे टीम गांधी नही

                                 
                                    टीम अन्ना की जुबान यदि तल्ख़ न होती,अन्ना यदि अधीर न होते,अनजाने में ही सही संघ की मदद नही कर रहे होते तो मैं भी उनके साथ होता,टीम अन्ना जब इस वक्त अपनी ओर मुडी सुई को सरकार की ओर मोडना चाह  रही है तब निश्चित तौर पर कुछ सवाल उठाना लाजिमी है.अन्ना को अनशन के बाद लिखित रूप से सरकार की ओर से जन लोकपाल बिल को पारित करने की स्वीकृति दी गयी थी,फिर अचानक अन्ना की उसी बात को लेकर पुनः अनशन करने की धमकी दिया जाना समझ नही आ रहा है.क्या अन्ना को अपनी गिरती हुई साख का अहसास हो रहा है इसलिए वे ऐसा कर रहे हैं या फिर अन्ना का स्वयं ही अपनी टीम के सदस्यों पर से विश्वास उठता जा रहा है.इस मामले को भले  ही मीडिया ने इस तरह के साधारण और सामान्य से प्रश्न उठाकर गंभीरता से अलग कर दिया हो किन्तु इसके पीछे बड़ी और गंभीर किस्म की राजनीति की बू भी आ रही है.अव्वल तो यह कि टीम अन्ना को कहीं न कहीं अपनी राजनैतिक भूमि डगमगाती नजर आ रही है या फिर अन्ना जन लोकपाल बिल पास होने के बाद की स्थितियों पर बनने वाले अस्तित्व के संकट के विचार से घबरा रहे हैं.शीतकालीन सत्र में जन लोकपाल बिल पास हो जाने के बाद टीम अन्ना क्या करेगी यह बड़ा प्रश्न उनके सामने है.इसके बाद भले ही टीम अन्ना कोई न कोई मुद्दा भले ही ढूढ निकाले तो क्या उसे भी इतना जन समर्थन मिल पायेगा जबकि इसी मुद्दे पर टीम अन्ना के अंतर्विरोध सामने आ गए हैं.अनशन समाप्ति के पश्चात अन्ना ने ‘'राईट टू रिजेक्ट’'के मुद्दे की बात कही थी लेकिन इसके इतना बड़ा मुद्दा बनने की गुंजाइश नही ही है क्योंकि निर्वाचन आयोग स्वयं ही पहले से इस पर विचार कर रहा है और हो सकता है कि अगले चुनावों में इसकी परिणति भी हो जाये,लेकिन अन्ना ने राईट टू रिजेक्ट ही क्यों चुना राईट टू रिकाल की बात क्यों दबी रह गयी यह प्रश्न महत्वपूर्ण है.लोहिया और जयप्रकाश नारायण के दर्शन में जरुर इस अधिकार की बात की गयी थी परन्तु अब तक भारत में इस अधिकार की बात करने वाला उनके बाद कोई नही आया अन्ना भी नही.प्रश्न है कि राईट टू रिजेक्ट और जन लोकपाल बिल के परिणाम यदि भारत की भ्रष्टाचार की समस्या को सुलझाने और राजनीति में बेहतर नेताओं को पहुचाने में सफल नही रहे (जिसकी संभावना भी बहुत कम है लगभग न के बराबर) तब क्या होगा.अन्ना के पास इसके बाद क्या विकल्प है.जबकि अन्य देशों में जहाँ अब तक राईट टू रिजेक्ट था वहां भी अब इसे खत्म किया जा रहा है जबकि हम इसे अपनाने की बातें जोर शोर से उठा रहे है और ऐसे देश में जहाँ का मतदाता वोट देने ही नही जाता,ऐसे कितने प्रतिशत लोग हैं जो वोट नही करते ऐसे में यह अधिकार कितने लोगों को मिल पायेगा, मतदान के अधिकार का ही प्रयोग हम नही करते तो राईट तो रिजेक्ट का प्रयोग किसके लिए. जरुरत पहले राजनैतिक चेतना को बढाने की है, मतदान के अधिकार को अनिवार्य बनाने की है. मतदान के महत्व को गंभीरता से समझने की जरुरत है.तब ही हम एक अच्छे लोकतंत्र की उम्मीद कर सकते हैं न कि किसी पार्टी विशेष को हराने की घोषणा करके कि अमुख पार्टी को मतदान न करें,ऐसा करके हम नकारात्मकता को जन्म दे रहे हैं और अपनी नकारात्मक सोच को भी प्रदर्शित कर रहे हैं,यह सोच  बताती है कि ऐसे लोगों का लक्ष्य क्या है, जरुरत है एक अच्छी वैकल्पिक व्यवस्था को सामने रखने की,ऐसे में राईट टू रिजेक्ट की जगह राईट टू रिकाल को रखने कीजरुरत है,'राईट टू रिकाल' जरुर इस देश की राजनीति में एक बड़ा बदलाव ला सकता है.'राईट टू रिजेक्ट' के माध्यम से जनता को उम्मीदवारों को नकारे जाने का अधिकार पांच सालों में एक बार के लिए तो  अवश्य मिल जाएगा परन्तु उसके बाद अगले पांच सालों तक जनता क्या करेगी यह भी एक तरह की नकारात्मकता ही है इस अधिकार से उन उम्मीदवारों को रिजेक्ट करने की सुविधा तो मिल रही है पर  बेहतर विकल्प के चुनाव की संभावना तब भी नही बन पा रही है,जबकि 'राईट टू रिकाल' में यदि गलत उम्मीदवार का चुनाव हो भी जाता है तो पांच सालों में कभी भी जनता उसके कार्यों का मूल्यांकन करके उसे वापस भी बुला सकती है और सरकार पर भी जनता का राईट टू रिकाल का दबाव बना रहेगा जिसके चलते सरकारें अपने तानाशाही स्वरूप में आने से भी बचतीं रहेंगी और भ्रष्टाचार पर नियंत्रण बना रहेगा साथ ही देश का पैसा बार बार होने वाले चुनावों में खर्च होने से भी बचा रहेगा,तब वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना संभव हो पायेगी.
टीम अन्ना के मंतव्यों पर संदेह करने के और भी कारण हैं,दरअसल टीम अन्ना में जो लोग हैं उनके सम्बन्ध गैर सरकारी संगठनो से हैं जिन्हें विदेशों से फंड प्राप्त होते हैं खासकर अमेरिका से और अन्य देशों से,ये कौन सा पैसा है जो वेलफेयर के नाम पर आता है,क्या इसमें भ्रष्टाचार का पैसा नहीं है यह किसी से छुपा नही है,कोई भी लाभ(सरप्लस) बिना शोषण के नही बनाया जा सकता,और कहीं भी ऐसे धन को लगाने का उद्देश्य कहीं न कहीं राजनैतिक अस्थिरता को फैलाने के लिए ही किया जाता रहा है.हाल ही में मिश्र और अन्य देशों के उदाहरणों से हम समझ सकते हैं,जहाँ जहाँ सत्ता परिवर्तन हुआ है वहां के किन लोगों ने रंगीन क्रांतियां की हैं और किन लोगों को वहां सत्ता परिवर्तन का लाभ पहुंचा है ये देखा जाना जरूरी है.ऐसे सभी देशों में गैरसरकारी संगठनों ने ही अग्रणी भूमिका निभायी है और अंततः लाभ भी अमेरिका को ही हुआ है.ऐसे में अन्ना के आंदोलन से भी यदि अमेरिकापरस्त किसी पार्टी को लाभ पहुँच रहा है तो इसमें क्या आश्चर्य है. हो सकता है कि कुछ जनसंगठन भी इसमें शामिल हो और उनका ध्येय भी ठीक हो किन्तु वह भी तो कहीं न कहीं इस अनशन से उभरे जनउभार(जनता के व्यवस्था के गुस्से )को नष्ट करने का काम ही कर रहे हैं, ऐसे में अन्ना की  महात्मा या गांधी से कैसे तुलना की जा सकती है,गांधी ने पहले पश्चिमी सभ्यता का विरोध किया स्वराज की मांग की और अंत में अपनी ही पार्टी में फ़ैल गए भ्रष्टाचार के चलते कांग्रेस को भी भंग कर देने की मांग की,अन्ना को अभी गांधी से बहुत सीखने की जरुरत है ,गांधी के पास अगली सदी तक का अजेंडा था और वे आज भी समकालीन बने हुए हैं.लेकिन गांधी गांधी थे टीम गांधी नही.