Monday, February 9, 2009

हरसूद और मीडिया

हरसूद और मीडिया म।प्र. के खंडवा जिले का ७०० साल पुराना एक शहर है(था)हरसूद! लोक में हरसूद के बारे में मान्यता है कि यह राजा हरिश्चन्द्र के शासनाधीन नगर रहा है,बडे बूढे आज भी कहते हैं कि हरिश्चन्द्र का सत्यव्रत जैसे जैसे बढता गया और फलित होता गया वैसे वैसे उनका राज्य विस्तार भी बढता गया,उसी बढत के कारण हरसूद का विस्तार पश्चिम दक्षिण में है,राजा हरिश्चन्द्र भगवान राम के पूर्वज थे,इक्ष्वाकु वंश का गौरव इस देश के साथ एक गहरी सांस्कृतिक परंपरा के साथ जुडा हुआ है. उत्तर में नर्मदा नदी,दक्षिण में वरूपारेल नदी,पूर्व में कालीमाचक नदी और पश्चिम में छोटी तवा नदी के बीच हरसूद का उपजाऊ और जन आत्मीय संपन्न भू भाग फैला है,हरसूद केवल एक बडे गांव का नाम नही था,बल्कि इतने बडे भू क्षेत्र के निवासियों के जीवन की धडकनों का केन्द्र था,लगभग ५०० गांवों की हलचलें हरसूद के साथ जुडीं थीं,प्रत्येक खेत के दाने हरसूद मे६ बिकते थे,रोते थे,मर जाते थे,हरसूद का बजार इन गावों के घरों में घुसकर धमाल मचाता था,इन गांवों से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सूत्र हरसूद के माध्यम से जुडे थे,हरसूद हाट बाजार का स्थान नही था,सगे संबंधियों,स्वजनों परिजनों का मिलन बिन्दु और सामूहिक विवाहों,सामाजिक कार्यों का केंद्रस्थल भी था,सामाजिकता को यदि बाजार का आधार होता तो वह जगह हरसूद ही होती थी,वस्तु किसी भी कंपनी की हो,कहलाती थी हरसूद की,"हरसूद से लाये हैं". लेकिन अब हरसूद एक स्वप्न है,और पंडित जवाहर लाल नेहरू के भारत को आधुनिक बनाने के स्वप्न की शुरूआत ही होती है बांध परियोजनाओं के निर्माण से,जहां एक ओर इस परिकल्पना को लेकर विकास किया जा रहा था,वहीं दुसरी ओर आजादी के बाद भी भारत आर्थिक,सामाजिक और राजनैतिक रूप से अभी भी पिछडा हुआ ही था,ऐसे में परियोजनाओं के तहत बांधों के निर्माण की घोषणा और उनसे होने वाले विस्थापन को राष्ट्रहित में बलिदान जैसे तर्कों से तर्कसंगत बनाने का काम भी किया जा रहा था और सफल भी हो रहा था,परंतु जैसे जैसे लगातार आधुनिक होते जाने की दिशा में उन परियोजनाओं को अमलीजामा पहनाना शुरू हुआ,भारत में राजनैतिक सजगता भी बढी और अपने अधिकारों को लेकर लोगों में प्रतिरोध की संस्कृति भी पनपने लगी,इस प्रतिरोध की प्रथम कडी इसी हरसूद शहर में ८० के दशक में मिलती है,जहां पहली बार २५० समाजसेवी संगठन प्रमुखों ने विकास की इस अवधारणा के बरक्स 'मानव श्रंखला'बनाकर प्रतिरोध की सुरूआत की,हालांकि मानवता के तहत इस तरह के प्रतिरोध तो आरंभ से ही देखने मे आ रहे थे! इस प्रकार ५० के दशक के मध्य से लेकर अब तक लंबा अंतराल दिखायी देता है जिसमें प्रतिरोध की कोई व्यापकता नजर नही आयी और जब ८० के दशक में इसकी शुरूआत हुई भी तो इन परियोजना के रहनुमाओं ने प्रतिरोध को समाप्त करने के व्यापक उपाय पहले ही कर लिये थे,जिनमें शामिल था विस्थापितों को मुआवजा देना,नये पैकेजों की घोषणा करना और भविष्य को लेकर एक ऐसी सुनहरी कल्पना बेचना जिसमें सहज मानव बुद्धि निश्चित ही धोखा खा जाये, और हुआ भी यही कि प्रतिरोध की शुरूआत जिस जगह से हुई उस जगह को ही डुबा दिया गया और प्रतिरोध की परिणति केवल मुआवजों के समान वितरण को लेकर मात्र ही रह गयी,इसके कारण क्या रहे? यह मेरे शोध प्रबंध में है लेकिन विषय सीमित है इसलिये मै अपने विषय पर ही बात करता हूं. नर्मदा सागर बांध परियोजना की बात ५० के दशक में हुई,पर काम उसी समय सुरू नहि हुआ,राज्यों के बीच नये नये विवाद खडे होते रहे,इनका हल १९७२ में हो पया,'मास्टर प्लान' बना था १९७२ में,वह केंद्रीय जल और विद्युत आयोग के दो दशकों तक किये गये परीक्षणो के आधार पर बना था,उसकी मूल कल्पना बनी थी १९६५ में उसी पुरानी खोसला समिति की रिपोर्ट के अनुसार ही थी,इस बीच परियोजना की सक्षमता के बारे में भी कई सवा उठे. जरा एक नजर परियोजना के लागत लाभ अनुपात पर डालें,सिंचाई:- इस परियोजना का लक्ष्य १ लाख२३ हजार हेक्टेयर भूमि पर सिचाई का बताया गया है जिसके तहत ९१ हजार हेक्टेयर भूमि कीमती,शुष्क पतझडी वन,२४९ गांव और एक शहर हरसूद कस्बा शामिल था. "पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की समीक्षा समिति के १९९३ में तैयार की गयी एक रिपोर्ट मे६ अनुमान लगाया गया था कि डूबने वाले जंगल की कीमत तकरीबन ३३,९२३ करोड रूपये होगी" १९९४ में पर्यावरण मंत्रालय को सौंपी गयी इसकी प्रबाव आकलन रिपोर्ट मे कहा गया है कि "नर्मदा सागर और ओंकारेश्वर परियोजना के सम्मिलित विनाशकारी प्रभावों की क्षतिपूर्ति न तो संभव है और न ही इसके बारे में कुछ सुझाया गया है,इसे तो भविष्य में मिलने वाले सामाजिक आर्थिक लाभ के लिये चुकाई जाने वाली कीमत ही मानना होगा. जैसा कि होता रहा है ,सभी चेतावनियों को नजरांदाज कर दिया गया. ४२,००० हेक्टेयर के करीब जंगल डूब मे६ आने वाला था,खुद श्रीमती गांधी ने परियोजना का शिलान्यास करते हुए २४ अक्टूबर १९७४ को कहा था-"मैं जंगलों को काटने और बडे बांध बनाने के पक्ष में नही हूं". केंद्रीय सरकार के अंतरिक्ष विभाग ने उपग्रह छायाचित्रों से वनों के अध्ययन द्वारा अपनी एक रिपोर्ट में म.प्र. सरकार को चेतावनी भी दी है.१९८४ की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ऐसी तीव्र गति से वन विनाशजारी रहने पर अगले १० वर्षों में'संपूर्ण पारिस्थित्कीय विनाश' होगा दुर्भाग्यवश जिन २९ जिलों में अंधाधुंध विनाश को देखा गया है,उसमें नर्मदा सागर की डूब में आने वाले तीनो जिले-खंडवा,होशंगाबाद और देवास शामिल हैं. बिजली:- बांध की कुल बिजली उत्पादन क्षमता १००० मेगावाट बतायी गयी है अर्थात यह कुल मशीनी क्षमता है जबकि हम जानते हैं कि बिजली उत्पादन क्षमता पानी के प्रवाह पर निर्भर करती है.परियोजना की विस्तृत रिपोर्ट विद्युत उत्पादन क्षमता २१२ मेगावाट ही बताती है और जब नहरें चालू हो जायेगी तब यह क्षमता घटकर १४७ मेगावाट ही रह जायेगी! पानी की क्षमता संबंधी अनुमान था कि नर्मदा का सालाना औसत प्रवाह ४१ वी. एम. होगा,लेकिन निर्भर तो ७५% पर ही किया जा सकता है इसलिए उसकी मात्रा ३३.९ वी.एम.(यानी ऊपरी प्रवाह २२.५ और भूगत प्रवाह ११.४ वी.एम.) होगी.अध्ययन बताते हैं कि ९०% बहाव बरसात के महीने में होता है,बेंगलोर स्थित इंडियन इंस्टीट्युट आफ मैनेजमेंट के अध्ययन से मालूम होता है कि (पिछले ३१ सालों के हिसाब से)नदी में आज उतना पानी नही है. एन.एच.पी.सी. का कहना है कि जब यह परियोजना पुरी हो जायेगी तो इससे औसतन तकरीबन दो अरब यूनिट बिजली का उत्पादन होगा,इस समय म.प्र. में बिजली का ४४.२० फीसदी-१२ अरब यूनिट बिजली-प्रतिवर्ष पारेषण(ट्रांसमिशन) मे और वितरण में नष्ट हो जाता है.यह छह नर्मदा सागर परियोजना के बराबर होती है. एन.एच.पी.सी. की अपनी प्रचार सामग्री के ही अनुसार उत्पादित बिजली की कीमत 'बस बार'(यानी बिजलीघर के दरवाजे पर)रू.४.५९ प्रति यूनिट होगी,जिसका अर्थ है कि उपभोक्ता तक आते आते यह ७ रू. प्रति यूनिट हो जायेगी. इन सभी लागत लाभ अनुपात से अनुमान लगाया जा सकता है कि यह परियोजना कितनी और किसके लिये लाभकारी है? एक अन्य उदाहरण में नदी की जलशास्त्रीय जटिलताओं का भी खयाल नही रखा गया है या उन्हें सामने नही लाया गया है, जलविग्यानी बताते हैं कि कई जगह नदी तल में ऐसे दह बने हुए हैं जहां नीचे से पानी आता है तो कई जगह नदी का पानी जमीन के नीचे भी जा रहा है,नर्मदा नदी बडी दरार वाले इलाके से बहती है,यह दरार भारत को दो बिल्कुल भौगोलिक क्षेत्रों में बांटती है,दरार वाले इलाकों में भूकंप की भविष्यवाणी संबंधी अध्ययन मे लगे एक प्रोफेसर के अनुसार "नर्मदा घाटी विकास कार्यक्रम के अंतर्गत थोडे से इलाके में बहुत सारे जलाशयों के निर्माण की योजना के कारण भूकंप की संभावना बढ गयी है". म.प्र. के भूतपूर्व पर्यावरण आयुक्त श्री एम.के.शर्मा का भी कहना है कि "यह सब जानते है कि नर्मदा घाती बिखरे भूखंडो का इलाका है इसलिये यहां जलाशयों के बनने से उनके परिणामस्वरूप भूकंप की समस्ययें पैदा हो सकतीं हैं" इस बीच अनेक संगठनों ने भौगोलिक अध्ययन किये हैं लेकिन उन संगठनो की रिपोर्टों को अधिकारियों ने प्रकाशित नही किया,किसी को दिखाया नही.बांध क्षेत्र में नियुक्त इंजीनियर और भोपाल स्थित नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के अधिकारी कहते हैं कि वे सारे अध्ययन केंद्र सरकार ने करवाये हैं जिनमें नेशनल जियोफिजिकल इंस्टीट्युट भी शामिल है.बताया जा रहा है कि सर्वे करने वाले सभी 'सैंपल'दिल्ली गये हैं,इसलिये म.प्र. के विभागों को,सिचाई इंजीनियरों को कुछ मालूम नही है. हरसूद में मीडिया की भूमिका को इन्ही तथ्यों से जोडकर तीन तरह से देखा जा सकता है जहां जहां मीडिया का हस्तक्षेप हो सकता है. १. उन जानकारियों को लाने में जिनकी जानकारी जनता कओ नही है.२. प्रक्रियाओं में होने वाली अनियमितताओं की जानकारियों को उजागर करने में.३. और विचारधारात्मक रूप से यदि मीडिया का स्वरूप प्रतिरोधक है तो उसको एक दिशा मे मजबूती से व्यापक बनाने में, इनके अलावा एक तीसरा पक्ष यह भी हो सकता है कि देखने में मीडिया का स्वरूप प्रतिरोधात्मक तो लगे किन्तु वास्तविक स्वरूप कुछ और ही हो. चूंकि परियोजना के बनने और लागू होने में ४० वर्षों का अंतराल था और यही वह समय था जब मीडिया का दायित्व (यदि लोकतंत्र का चौखंभा है तो) था कि वह लोगों को समुचित जानकारी उपलब्ध कराये और डूबने और नही डूबने की अनिश्चितता में संतुलन बनाये, इसके अलावा परियोजना की अनियमितताओं की जानकारी दे.डूब क्षेत्र के लोगों को तो यह जानकारी भी नही थी कि जिस एक्ट के तहत उनका विस्थापन किया जा रहा है उसका निर्माण १८९४ में ब्रिटिश शासनकाल मे हुआ था जिसका नाम 'भूमि अधिग्रहण एक्ट' था इसमें 'जनहित' के नाम पर भूमि के अधिग्रहण का प्रवधान था. यहां गौर करने वाली बात यह है कि ब्रिटिश सरकार का भारत आने का उद्देश्य व्यापारिक एवं आर्थिक था न कि समाज कल्याण,अत: भूमि अधिग्रहणे एक्ट-१८९४ के साथ पुनर्वास नीति या एक्ट का नही लया जाना समझ मे आता है,लेकिन आजादी के बाद भी गुलामी की इस प्रवत्ति को ढोना समझ मे नही आता!जहां पुनर्वास विस्थापितों का मौलिक अधिकार होना चाहिये,वहां पुनर्वास सुविधा के किसी नियम या कानून का नही होना लोकतांत्रिक व्यवस्था को निराधार साबित करता है. इस तरह परियोजना से संबंधित नियमों और कानूनी जानकारी लोगों को कही से नही मिल पायी,यहां तक कि सरकार द्वारा लागू की जाने वाली योजनाओं की वास्तविकताओं से परिचय कराना तक उचित नही समझा गया.इनमें से कुछ उदाहरण देखे जा सकते हैं जैसे:- संवैधानिक दायित्वों और अंतरराष्ट्रीय संधियों का उल्लंघन,पेसा कानून,ब्रंटलैंड आयोग की रिपोर्ट,अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन संधि १०७ आदि. इसके अलावा हरसूद में सरकार द्वारा की जानेवाली ज्यादतियों की तरफ भी इनका ध्यान नही गया. १. विस्थापितों को भ्रामक और अधूरी जानकारी दी गयी२. गांववासियों के खिलाफ बल प्रयोग३. अपर्याप्त मुआवजा४. प्रभावितों की सुची में अनियमितता आदि. इस तरह की विभिन्न जानकारियों के प्रति जनसंचर माध्यमों का उत्साह कहीं नही दिखाई देता है.कहा जा सकता है कि ५० के दशक से लेकर अब तक के लंबे अंतराल को पाटने में जनसंचार माध्यमों की खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया की कोई भूमिका नजर नही आती. इस तरह जनसंचार माध्यमों की मूक दृष्टि कही न कही सरकारी और पूंजीवादी नियंत्रण को ही दर्शाती है लेकिन उत्सव और ग्लैमर के अपने चरित्र को प्रतिस्पर्धा के आज के दौर मे भुनाना मीडिया का एक नया चरित्र निर्माणकरता है,ऐ सका उदाहरण भी हरसूद का डूबना है जहां कुछ दिनो पूर्व से ही प्रिन्ट और इलेक्त्ट्रानिक मीडिया के गढ स्थापित कर लिये जाते है डूबने के उत्सव को अपने अपने ढंग से परोसने के लिये, हरसूद अचानक सुर्खियों में आ जाता है, सभी जगह हरसूद छा जाता है. ३० जून २००४ से लेकर ३० जून २००५ तक मीडिया का खेल भी कही न कही इस तंत्र की बनावटी तस्वीर पेश करता है जब मीडिया ने हरसूद को बिना डूबे ही डूबा हुआ दिखाया.यह स्थिति नर्मदा सागर बांध के पानी के २५४ मीटर के स्तर पर बनी थी तब हरसूद के मुख्य बाजार में पानी फैल गया था.यह कही ६ इंच और कही १-२ फीट तक ही था, हां नाले के किनारे के हिस्से में अवश्य ५-१०फीट पानी एकाध जगह था. यह भी बरगी बांध के नौ द्वार खोलकर कृत्रिम बाढ की स्थिति निर्मित की गयी थी जिससे हरसूद के हटाने को न्यायसंगत ठहराया जा सके. मुआवजे को लेकर भी जनसंचार माध्यमों ने खबरों का चुनाव भी कुछ इस तरह किया जैसे मुआवजे का यह वितरण एक उत्सव सरीखा हो. एक खबर के अनुसार मुआवजे की राशि से खरीदे गये वाहनो पर लोगों ने मां नर्मदा कृपा लिख्वा लिया है, इस खबर में इस्माइल लहरी का एक कार्टून भी छपा जिसमें एक आदिवासी अपनी अर्धांगिनी को मोटरसायकिल पर बिठाये जाझा था और आसपास से आवाजें आ रहीं थीं- मुआवजा एक्सप्रेस...मुआवजा एक्सप्रेस. एक अन्य खबर में दैनिक भास्कर इंदौर ने हरसूदवासियों के साथ घिनौना मजाक भी किया जिसमें वह अपने पूंजीवादी चरित्र की चरम परिणति को प्रदर्शित करता है. दैनिक भास्कर इंदौर पेज १५ न्यू हरसूद विजन २०२४ के नाम से १ जुलाई २००४ को सोमवार को छापा गया जिसमे हरसूदवासियों के कल्पित भविष्य को गढने की कोशिश की गयी. खबर के अनुसार हरसूद शहर की छवि कुछ इस तरह होगी. यहां केवल सुर्खियों को ही लिया जा रहा है.विस्तृत व्यौरा शोध प्रबंध में है.१. यू.एन.डी.पी. की बैठक न्यू हरसूद के ऐलैन्ड होटल में होगी,२. विश्वस्तरीय स्कूल को पायलट प्रोजेक्ट माना, ३. हाट स्पाट में बिजली का उत्पादन चार गुना होगा,४. हाई स्पीड शिप सर्विस का नया नेटवर्क स्थापित होगा,५. वर्ल्ड फिश फेस्टीवल का आयोजन दिसंबार में किया जायेगा,६. यह विश्व का सबसे ज्यादा प्रदूषण मुक्त क्षेत्र होगा, ७. हरसूद वाटर टेनिस २०२८ के लिये दावेदारी प्रस्तुत करेगा,८. रिसर्च एंड ट्रेनिंग सेंटर के लिये मिट्स वे माइक्रोसोफ्ट ने हाथ मिलाये.९. हरसूद की प्रतिमाओं की तलाश के लिये एम.ओ.यू. साइन,१०. आर्यन खान(शहरूख खान के पुत्र) की पहली फिल्म'सब कुछ होता है' की शूटिंग न्यू हरसूद में होगी. ११. लुभाने लगी डाल्फिन की अदायें. हरसूद के डूबने के समय ही केवल मीडिया का इस तरह का रूख दिखाई देता है और केवल हरसूद को ही प्रकाश में लाने का स्पष्ट कारण यहां के मुद्दों से जुडने वालीं महान हस्तियों का आना मत्र ही था. अरूंधति राय के हरसूद आने के बाद से ही मिडिया ने अपने पांव वहां रखे थे. इसके बाद भी ९१ गांव अभी भी डूब की सूची में हैं जिनकी तरफ मीडिया का ध्यान ही नही है. हां यदि जनसंगठनों के माध्यमो की चर्चा करें तो उनका काम अवश्य ही सराहनीय रहा लेकिन अनुप्लब्ध साधनों और संसाधनो की कमी से उनहें व्यापक सफलतायें नहीं मिलीं फिर भी उनके प्रयास उनके प्रतिरोधक साहित्य के साथ ही आज भी जारी हैं जिनके माध्यम से लोगों को जानकारी देने के साथ ही उनमें प्रतिरोध की संस्कृति का निर्माण करने तक वैधानिक ढंग से उनका काम काबिले तारीफ रहा है. इस तरह जनसंचार माध्यमो की हरसूद में भूमिका को देखते हुए पुन: उस विमर्श की तरफ एक सशंकित नजर जाती जिसमें पूंजीवाद को उसकी कमियों से ढह जाने की एक अशाभरी किरण नजर आती है.इस तरह अरूंधति राय के पावर पालिटिक्स लेख के उन शब्दों की याद आती है कि॥ "जब सूचना क्रांति की अगली कतार में भारत की चमत्कारी छलांग का इतिहास लिका जयेगा,तो साथ ही यह भी कहा जा जाना चाहिये कि पांच करोड साठ लाख भारतीयों ने(और उनके बच्चों,एवं उनके भी बच्चों ने) इसके लिये अपना घर,अपनी जमीन,अपनी भाषा,अपना इतिहास,यानी अपना सब कुछ गवां दिया... मानव समुदाय को तो कीमत चुकानी ही पडी, पर्यावरण को भी इसका मूल्य अदा करना पडा,पचास लाख हेटेयर से भी अधिक क्षेत्रफल में जंगल डूब गये,पारिस्थितकीय प्रणाली तबाह हो गयी,नदियां नष्ट हुईं,सूखीं,जलग्रहण क्षेत्र बालू से पट गये,वन्य जीवन संकटग्रस्त हो गया,जैव विविधता विलुप्त होने लगी और दस लाख हेक्टेयर कृषि भूमि अब तक पानी और कीचड में डूबी हुई है".