Tuesday, September 4, 2012

“शोध की अहिंसक दृष्टि”

शोध की अहिंसक दृष्टि

                                    इस आलेख में इस प्रश्न पर विचार किया गया है कि शोध की अहिंसक दृष्टि क्या हो सकती है या क्या होनी चाहिए,और जब हम शोध की अहिंसक दृष्टि पर विचार करते हैं तब ये प्रश्न स्वतः ही आ जाते हैं कि क्या अब तक जो शोध हुए हैं या हो रहे हैं या होने वाले हैं क्या उनकी दृष्टि हिंसक रही है?क्या शोध की भी कोई अहिंसक दृष्टि हो सकती है?

                                    इन प्रश्नों पर विचार करने से पूर्व शोध की महत्ता सम्बन्धी इन प्रश्नों को  पर विचार किया जाना आवश्यक है,कि शोध किसलिए किये जाते हैं,क्यों किये जाते हैं?किसी भी तरह के शोध चाहे वह विज्ञान के हो,मानव विज्ञान के हो,समाज विज्ञान के हो,मनोविज्ञान के हो या अन्य, महत्त्व की कसौटी  इसी बात से पता  लगायी जा सकती है कि उन शोधो ने मानव समाज  को क्या दिया,मानव समाज की उन्नति के लिए क्या किया,यदि किसी भी तरह के शोध ने मानव समाज के मूल्यों को स्थापित करने में या उनके विकास में कोई योगदान नही किया है तो उस शोध का कोई अर्थ नही है ,वह निरर्थक है.

यहाँ पर जब मैं मानवीय मूल्यों की स्थापना की बात कर रहा हूँ तो निश्चित तौर पर समानता,प्रेम,सहिष्णुता,बंधुत्व आदि मूल्यों की बात कर रहा हूँ,यदि शोध इन मूल्यों के विकास में योगदान नही करता तो वह समाज के किसी काम का नही है. और इसी कसौटी पर कसकर ही इसकी महत्ता को जांचा परखा जाना चाहिए,और इसी महत्ता से तय होती है कि इस तरह के शोध की शोध प्रविधि क्या होनी चाहिए,तब निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि जो शोध प्रविधि समता,बंधुत्व,सहिष्णुता और प्रेम जैसे मूल्यों की स्थापना के लिए अपनायी जाए वही अहिंसक शोध प्रविधि कहलाएगी और इस दृष्टि को ध्यान में रखकर जो शोध किया जाए उसे शोध की अहिंसक दृष्टि कहा जाएगा.

    इसे समाज के सभी क्षेत्रों के शोधों पर लागू किया जाना चाहिए चाहे वह वैज्ञानिक शोध हो,समाजवैज्ञानिक शोध हो,मनोवैज्ञानिक शोध हो या अन्य.सभी शोधो के लिए यह एक अनिवार्य है.

    वर्तमान समय में समाज में यदि हिंसा बढ़ी है और ऐसे शोध जिनसे इसे विस्तार मिला है, वे शोध  और शोध प्रविधियां हिंसक कहलाएंगी,फिर चाहे वह आर्थिक,सामाजिक,राजनैतिक विषमता बढाने वाली रही हो या अन्य.

    यह अहिंसक शोध दृष्टि का दार्शनिक पक्ष कहा जा सकता है उसकी तत्व मीमांसा कही जा सकती है,इसके व्यवहारिक पक्ष की बात करें तो इस दर्शन के व्यवहारिक पक्ष को शोध के विभिन्न चरणों में लागू किया जा सकता है,ताकि एक अहिंसक शोध प्रविधि का निर्माण किया जा सके,फिर चाहे वह विषय चयन का मामला हो या आविष्कार का,सभी के उपयोग से उसकी खोज की पुष्टि की जा सकती है,शोध का वास्तविक महत्त्व इन्ही मूल्यों की स्थापना से है.

    इस तरह की शोध प्रविधि के विरोध में यह तर्क विकसित किया सकता है कि इसमें वैज्ञानिकता नही रहेगी या फिर कि यह पक्षपात पूर्ण होगा.इस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि ऎसी वैज्ञानिकता किस काम की जो समाज को कुछ न दे सके,अंततः शोध समाज के लिए है न कि समाज शोध के लिए.
    दरअसल शोध में वैज्ञानिकता का दबाव बनाया जाता है ताकि परिणाम प्रभावित न हो,उसी शोध को वैज्ञानिक माना जाता है,पर आजकल के  औद्योगिक शोध,संचार शोध तो निष्कर्ष क्या निकालना है  इसलिए ही किये जाते हैं,

    वैज्ञानिकता के बारे में दरअसल कहा जा सकता है कि हमें अब तक  जो इसके बारे में बताया गया है ,या वैज्ञानिक बनने की जो ट्रेनिंग हमें दी गयी है या जो कंडीशनिंग की गयी है, उसे कभी भी हमने प्रश्नांकित करने की कोशिश नही की.वैज्ञानिक होने का मतलब किसी द्वीप पर अकेले खडा होना नही है,वैज्ञानिक होने का अर्थ है कि विज्ञान के उन सिद्धांतों की खोज करने वाला,जिसमे समाज की भलाई निहित है,उन मूल्यों की स्थापना के सिद्धांतों की खोज करना निहित है जो समाज के विकास में सहायक हो,वैज्ञानिक  भी समाज का एक अंग होता है और समाज के प्रति उसके वैज्ञानिक होने के कारण उत्तरदायित्व और अधिक बढ़ जाते हैं,कहने का आशय यह है कि जितनी अधिक उत्तरदायित्व की भावना होगी शोध में उतनी ही अधिक वैज्ञानिकता आयेगी.और विज्ञान के सिद्धांत भी इस बात को प्रमाणित करते है चाहे वह गुरुत्वाकर्षण का नियम की बात हो या विभिन्न अणुओं में उपस्थित ससंजक बल की या फिर जल या वायु के तत्वों के निर्माण की,सबमे वह संयोजक बल निहित है जिसे हम अहिंसा कहते है,वह तत्वों को जोड़ने की ही बात करता है न कि तोड़ने की .

    वर्तमान में हो रहे शोधों और शोध प्रविधियों को इसी कसौटी पर रखकर कसा जाना चाहिए ताकि शोध की महत्ता की जांच की जा सके और विषमता व्याप्त समाज में अहिंसा जैसे मूल्यों की स्थापना की जा सके .