एक अहिंसक विचार की भ्रूण हत्या
टीम अन्ना ने राजनीति में आने की घोषणा करके देश के गुस्से को ठंडा कर दिया, क्रांति की आस को सेफ्टी वाल्व से जाने दिया, लेकिन ये उद्देश्य तो अमरीकी एजेंटों का रहता है खैर वह सफल रहे ,लेकिन इस देश का एक बड़ा नुकसान कर दिया, जिसकी भरपाई अगले कई सालों तक नही की जा सकती, वह यह कि जो लोग अनशन की ताकत को समझते थे और उसके फायदों और नुकसान को समझते थे उनके सामने इस हथियार की गंभीरता को भी नष्ट कर दिया, एक सफल अहिंसक विचार की गलत समझ समाज में फैला दी.वह एक शिक्षक हो सकते थे पर उनकी ही समझ गलत निकली.अन्ना ने अहिंसा के हथियार को भोथा कर दिया.अब अगले कई साल अनशन के महत्त्व को समझने में लग जायेंगे,आंदोलन की भाषा को समझने में लग जायेंगे.आंदोलन को समझने में लग जायेंगे,अन्ना को जो लोग भी गांधी मानने लग गए थे, उनके भरोसे भी जल्दी टूट गए,बहरहाल यह समझना होगा कि आंदोलन की जनता जिसे अन्ना टीम ‘भीड़’ कहती रही, वह भी आंदोलन के नायकों के चरित्रों को गढती है,यहाँ भी गढा परिणामस्वरूप अन्ना को देश के अधिकाँश लोगों ने गांधी बना दिया, पर अन्ना गांधी नही बन पाए.अन्ना को टीम अन्ना ही खा गयी,मेरा मतलब कि टीम अन्ना गांधी को खा गयी.अहिंसक साधनों को खा गयी,उस जज्बे को खा गयी जो लोगों में चार दशक बाद पैदा हुआ था.हालाँकि उत्तरआधुनिकता के इस दौर में किसी की छवि बहुत दिनों तक आदर्श बनकर नही रह सकती थी क्योकि यह सूचना का युग है जो निजी से निजी बातों का भी खुलासा कर देता है, ऐसे समय में कोई भी आदर्श कायम नही रह सकता, ऐसे समय में केवल एक बड़े परिवर्तन की आवश्यकता थी वह संभावना बनी भी लेकिन सरकार ने अपने ही विरोधी पैदा कर अपने विरोध का एक नाटक रचा और रही सही संभावना भी खत्म कर दी.यह खेल जनता के गुस्से को ठंडा करने के लिए ही खेला गया था क्योंकि मंहगाई,भ्रष्टाचार,तेल,गरीबी,अशिक्षा,भुखमरी आदि आदि समस्याओं ने देश में एक गुस्सा बनाया था जो चरम पर था, पर इन सरकारी व्यवस्था के एजेंटों ने उसको फुस्स कर दिया,क्रान्ति के एक भ्रूण की हत्या कर दी,इतिहास इन्हें कैसे याद करेगा यह विचारणीय है.दरअसल देश की जनता में राजनैतिक चेतना का अभाव है और उसी का लाभ इस टीम ने उठाया और सरकार ने इस टीम के माध्यम से उठाया.यह कहने में बिलकुल भी हर्ज नही है कि इस बार का अनशन सत्ता वर्ग ने ही कराया ताकि जनता में क्रान्ति के जज्बे को पूरी तरह खत्म कर दिया जाए,वरना अभी कोई आवश्यकता नही थी अनशन की और ऐसा नही माना जा सकता है कि यह बात टीम अन्ना को पता नही रही होगी,अभी न तो मानसून सत्र चल रहा था, न देश में कोई बड़ा राजनैतिक निर्णय लिया जा रहा था,न विश्व में कोई बड़ी भारी उथल पुथल हो रही थी,किसी भी आंदोलन में समय का भी बड़ा महत्त्व होता है,आंदोलन का समय क्या रखा जाए गांधी ने हमें यह भी समझाया है,याद करें कि गांधी ने असहयोग आंदोलन को क्यों वापस ले लिया था, या दांडी यात्रा में कुछेक ७२ लोगों का ही चुनाव क्यों किया था,क्या उस समय ‘भीड़’(टीम अन्ना के शब्दों में) गांधी के पीछे नही थी?क्या उस समय गांधी एक आवाज लगाते तो देश की पूरी जनता नही आ जाती या क्या उस समय के बड़े क्रान्तिकारियों ने दांडी मार्च में शामिल होना नही चाहा था?गांधी इस बात को समझते थे और जानते थे कि देश की जनता की ट्रेनिंग आंदोलन की ट्रेनिंग नही है,इसलिए उन्होंने दांडी मार्च में चुनाव का विकल्प रखा और अन्य शामिल होना चाहने वाले लोगों से क्षमा मांग ली,पर आज भीड़ नही आने पर उत्साह और आंदोलन की भाषा सब बदल जाती है,इससे पता चलता है कि इस आंदोलन का विचार भीड़ से तय होता था विचार से नही,भीड़ से ही भाषा तय होती थी अहिंसा से नही,विचार और तरीके तो अहिंसक विचार के रखे लेकिन तय भीड़ से किया जनता से नही ,सब कुछ भीड़ से ही तय हुआ इसलिए भीड़ खो गयी तो आंदोलन भी खो गया.लेकिन यह बात गौर करने की है कि नुकसान किसका हुआ,कितना हुआ,दरअसल अव्वल तो विश्व (अमरीका) को भारत और चीन की अर्थव्यवस्थाओं से भय है, दूसरा भय साम्यवादी विचार से है,ऐसे में तेल की राजनीति ने उसे एक सभ्यता (मुस्लिम) का विरोधी तो पहले ही बना दिया है,और अगर ऐसे में बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं का फैलाव भी इन देशों में हो जाता तो ऐसे में सबसे बड़ा नुकसान उसे ही पहुचता है और यह हम हाल की आर्थिक मंदी में देख चुके हैं, साथ ही साथ यदि साम्यवादी विचारों का फैलाव भी हो जाए तो उसकी सामरिक ताकत का भी नुकसान उसे होता,इसलिए ऐसे देशों की सरकारों के माध्यम से और कुछ सरकारी एजेंटों,गैर सरकारी संगठनों आदि के माध्यम से एक प्रछन्न क्रान्ति रचकर जनता के गुस्से को ठंडा करा देना उस महाशक्ति के लिए एक आसान सा काम था जैसा कि उसने पहले भी हाल में हुई कुछ रंगीन क्रांतियों में इसके विपरीत देश को अस्थिर करने में किया, ऐसे में इन संगठनों और ऎसी सरकारों के चरित्र को समझना समय की अनिवार्य मांग है.ऐसे में वामपंथी विचार के पुरोधाओं की चुप्पी जरुर एक प्रश्नचिन्ह है,इतिहास जरुर उनसे प्रश्न करेगा कि ऐसे समय में वे क्या कर रहे थे.क्या यह सही समय नही था.या अब भी इंतज़ार की कलम से उनकी नियति लिखी गयी है,क्या ऐसे में उनका दायित्व जनता को राजनैतिक चेतना संपन्न बनाना नही था,समय की वस्तुस्थिति से अवगत नही कराना था,ऐसे कुछ प्रश्न हैं जिन पर विचार किया जाना बेहद जरूरी है.और अंत में समय और समाज से मुठभेड़ करती और स्वयं से सवाल करती मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ का अंश
"ओ मेरे आदर्शवादी मन,ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,भावना के कर्तव्य--त्याग दिये,हृदय के मन्तव्य--मार डाले!
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,तर्कों के हाथ उखाड़ दिये,जम गये, जाम हुए, फँस गये,अपने ही कीचड़ में धँस गये!!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में
आदर्श खा गये!
अब तक क्या किया,जीवन क्या जिया,ज़्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम...
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,तर्कों के हाथ उखाड़ दिये,जम गये, जाम हुए, फँस गये,अपने ही कीचड़ में धँस गये!!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में
आदर्श खा गये!
अब तक क्या किया,जीवन क्या जिया,ज़्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम...
3 comments:
आपके पोस्ट को पढकर निराशा हुई.
पहली बात तो यह कि "भीड़" की अवधारणा अन्ना टीम की नहीं, मीडिया और सरकारी चमचों और तथाकथित बुद्धिजीवियों की थी.
दूसरी यह कि आंदोलन की दुर्गति सरकार और हमारे तथाकथित क्रांतिकारियों ने की जो सिर्फ हवा में मुक्केबाजी और क्रांति करते हैं. ऐसे लोगों ने यह कहा कि अन्ना का आन्दोलन एक भटका आन्दोलन है.
तीसरी बात यह भी कि अन्ना गाँधी नहीं हैं, वे बैरिस्टर भी नहीं हैं और यह भी कि वे उत्तरआधुनिक युग में हैं जहाँ गाँधी से जियादा चुनौतियाँ हैं..फिर उका आन्दोलन गांधीजी की तरह का आन्दोलन भी नहीं है.वे तो लोकपाल से शुरू करके राजनीति के द्वार तक पहुँचने वाले थे, फिर वापस कदम खींच कर लौट गए.
हमें यह देखने की जरूरत है कि हम कबतक गुस्से के फूटने का इंतज़ार करते रहेंगे...किनके हाथ में अपनी थाती सौंपेंगे? उनके जो समाजवाद, साम्यवाद, मनुवाद चिल्लाते हैं और प्रणव मुखर्जी को जितवाते हैं, कांग्रेस को समर्थन देते हैं और लूट में हिस्सेदारी करते हैं..या उनके जो यह सोचकर चुप्पी साधे हैं कि अपने आप दुनिया एक दिन लाल रंग में रंग जायेगी...
रमाकांत जी शायद आप भूल गए कि भीड़ शब्द का प्रयोग टीम अन्ना ने ही किया है एक,आपको याद होगा वह वक्तव कि भीड़ आये या न आये हम आंदोलन करते रहेंगे.इस अवधारणा को उन्होंने कभी भी नकारा नहीं यह किसी ने नही कहा कि जिसे आप भीड़ कह रहे हैं वह भीड़ नहीं ह...ै,वह राजनैतिक चेतनासंपन्न जनता है,बल्कि मीडिया के उस कहे हुए को ही टीम अन्ना डिफेंड करती रही कि मीडिया ने सुबह कवरेज किया जब भीड़ नही थी दोपहर में नही किया जब भीड़ थी आदि आदि,और आप तो जानते ही हैं कि क्यों टीम अन्ना ने माफी भी मीडिया से मांगी,और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि आंदोलन का चरित्र जनता तय करती है न कि नेता,जनता को तय करने दीजिए....,अन्ना को जनता ने अन्ना बनाया था वही जनता जो राजनैतिक रूप से चेतना संपन्न है.और लगता है कि आपने शायद ठीक से पूरा लेख पढ़ा नही है.पूरा पढते तो आप जान पाते कि मेरी चिंताएं भी वही हैं जो आपकी चिंताएं हैं.
हाँ सर, यह सही है कि टीम अन्ना ने कभी "भीड़" शब्द का खंडन नहीं किया. लेकिन यह शब्द दिया किसका था?? भीड़ आये या न आये , ऐसा कहना तब पड़ा था जब लगातार नकारात्मक ख़बरें आ रही थी कि आन्दोलन में जान नहीं है.कि लोग नहीं आ रहे हैं..
इतने अपरिपक्व कुमार विश्वास तो हैं ही कि शब्द के गंभीरता को महसूस कर सकें. यो ही नहीं सब उन्हें लबार कहते थे .
मीडिया की भूमिका का क्या कहना सर! कौन नहीं जानता कि उसे सरकार ने खरीद लिया है.
आप ने हमारे दूसरी शंकाओं का निराकरण नहीं किया..
आपने यह नहीं बताया कि गांधीजी ने नमक सत्याग्रह के लिए वो दिन क्यों चुना था/ क्या सरकार ने जन् विरोधी निर्णय लिया था. मैंने कई जगह पढ़ा था कि गांधीजी के इस आन्दोलन कि खूब खिल्ली उड़ाई गई कि उन्होंने क्या विषय चुना है. लेकिन सिर्फ गांधीजी जानते थे कि विषय तो बहाना है, असल मुद्दा तो ध्यान आकृष्ट करना है. क्या अन्ना टीम ने हमारा ध्यान आकृष्ट किया कि सरकार खुलेआम लूट कर रही है और हम सब उसमे सहयोग कर रहे हैं.
किसी ने विरोध किया सर???
और मैंने लेख पढ़ा था..वैसे मेरी जितनी समझ....मैं क्या कहूँ
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